June 11, 2009

आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग साजिश या कुछ और....

कुछ राजनीतिक दलों की क्षुद्र राजनीति के चलते वर्षों से अधर में लटके महिला आरक्षण विधेयक पर इस बार भी संदेह के बादल मंडराने लगे हैं। अपने गठबंधन के दम पर फिर से सत्ता में लौटी कांग्रेस से न केवल महिलाओं को बल्कि आम आदमी को भी उम्मीद है कि इस बार विधेयक कानून बन जाएगा। लेकिन शरद यादव सहित कुछ अन्य नेताओं की स्वार्थपूर्ण राजनीति के चलते कुछ संदेह उत्पन्न होने लगा है। हालांकि, सकारात्मक विपक्ष की भूमिका का निर्वहन करते हुए भारतीय जनता पार्टी ने इस विधेयक का समर्थन करने का फैसला किया है।
मौजूदा स्वरूप में इस विधेयक का विरोध करने का ठोस कारण किसी पार्टी के पास नहीं है। जो दल विरोध कर रहे हैं उसके पीछे उनकी मंशा पर संदेह पैदा होता है। दरअसल, यह दल आरक्षण के आड़ में अपनी रोटी सेंकना चाहते हैं और महिलाओं को भी आरक्षण के नाम पर बांट देना चाहते हैं।

शरद यादव को मैं सुलझा हुआ और लालू, मुलायम-पासवान से अलग समग्र समाज की राजनीति करने वाला नेता मानता था, लेकिन आरक्षण के नाम पर जहर खाने की बात कह कर उन्होंने भी अपना असली चेहरा दिखा दिया है कि वह भी जाति और समाज को बांटने की राजनीति करने वालों से अलग नहीं हैं। बिहार में राजद और लोजपा को छोड़ दिया जाए तो जदयू को भी भाजपा और कांग्रेस की तरह समाज के हर जाति और वर्ग के लोग वोट देते हैं। ऐसे में शरद यादव आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग करके कौन सी राजनीति कर रहे हैं।

शरद यादव एक राष्ट्रीय स्तर के गठबंधन के संयोजक हैं फिर भी वह अपनी क्षेत्रीय सोच से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। अभी कुछ दिन पहले ही वह भाजपा के कुछ नेताओं द्वारा मोदी को आडवाणी के बाद प्रधानमंत्री के लिए नाम उछाले जाने पर गठबंधन धर्म की दुहाई देते घूम रहे थे। लेकिन खुद क्या कर रहे हैं। दरअसल, जदयू का जनाधार महज बिहार (झारखंड में भी तोड़ा बहुत) तक ही सीमित है। शरद यादव को लगता है कि आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग पर जहर खाने की धमकी देकर वह लालू प्रसाद और रामविलास पासवान के वोट बैंक पर कब्जा कर लेंगे। लेकिन ऐसा होगा नहीं। क्योंकि बिहार में लालू प्रसाद को कमजोर नहीं माना जा सकता है। आज भी लालू की लोकप्रियता सर्वाधिक है। वहीं शरद यादव जीतने के बाद भी लोकप्रिय नेता नहीं माने जाते हैं।
ऐसे में आरक्षण के नाम पर उनकी सोच हास्यास्पद ही है। पंचायतों में आरक्षण की व्यवस्था से पहले जो लोग एक साथ मिलजुल कर रहते थे वह आज चुनाव में आमने-सामने होने से एक दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं। चुनावी रंजिश को लेकर मरने-मारने के लिए साजिश करते रहते हैं।

संसद में राष्ट्रपति महोदया के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस के दौरान अपने संबोधन में लालू ने महिला आरक्षण के बारे में जो कुछ भी कहा उस पर हंसी आती है। लालू का यह कहना कि आरक्षण के भीतर आरक्षण का विरोध करने वाले लोग पिछड़ों और दलितों को संसद और राजनीति से बाहर करना चाहते हैं। कितनी छोटी सोच है। यह कौन सी समाजिक न्याय की व्यवस्था है। एक को आगे लाएं और दूसरे को गड्ढे में गिराएं।

हो सकता है मेरी बात कुछ लोगों को अप्रिय लगे, लेकिन सच तो यह है कि हर क्षेत्र में आरक्षण की मांग करके लालू सरीखे लोग सवर्ण जातियों को ही संसद और विधान सभाओं से बाहर करना चाहते हैं। पहले से ही मुख्य धारा की राजनीति में आरक्षण की व्यवस्था है। अब महिला आरक्षण में भी आरक्षण की मांग! इससे तो समतामूलक समाज की स्थापना नहीं हो सकता। इससे तो समाज में कुछ जातियां ऊपर उठेंगी और कुछ मुख्य धारा से पीछे होती जाएंगी। वैसे भी संसद और विधान सभाओं में सवर्ण जातियों की संख्या अब कम होती जा रही है।

यदि पिछड़ों और दलितों को संसद से बाहर करना होता तो कांग्रेस मीरा कुमार को लोक सभा का स्पीकर नहीं बनाती और नहीं भाजपा आदिवासी नेता को डिप्टी स्पीकर के पद पर बैठाती। कांग्रेस और भाजपा में समाज के हर वर्ग और जाति को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिलता रहा है।

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