March 19, 2010

नोटों का माला पहनने से दलितों का उत्थान नहीं होगा मुख्यमंत्री जी

बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम की जयन्ती के बहाने शक्ति प्रदर्शन करने वाली बसपा सुप्रीमो उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री नोटों की माला पहन कर क्या सन्देश देना चाहती हैं। यह तो वही बताएंगी। लेकिन, जिस प्रदेश में बुन्देलखण्ड जैसे पिछड़े इलाके हैं जहां कि जनता गरीबी से त्रस्त है वैसे प्रदेश में ऐसा प्रदर्शन निश्चय ही जनता का उपहास उड़ाया जाना ही मानना चाहिए। विपक्ष की हायतौबा से बेपरवाह मुख्यमंत्री जयन्ती के दूसरे दिन भी नोटों की माला पहन कर दलित की गरीब बेटी होने का सबूत दे दिया है। यदि उन पैसों को जयन्ती समारोह में आए गरीबों की बेटियों की शादी और उनकी शिक्षा के लिए दे दिए गया होता तो शायद बहुतों का कल्याण हो गया होता। दरअसल, यहां गरीब जनता की फिक्र किसे है। मायावती को तो विरोधियों के जले पर नमक छिड़कना था और प्रदेश की असल मुद्दों से सबका ध्यान भटकाना था जिसमें बसपा के रणनीतिकार पूरी तरह से सफल रहे।

बसपा संस्थापक की जयन्ती पर रैली के नाम पर उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री धनबल और जनबल का प्रदर्शन करने में पीछे नहीं रहीं। उत्तरप्रदेश देश के बीमारू राज्यों में शुमार है। प्रदेश में शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, सिंचाई सहित कानून व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त है। लेकिन, मुख्यमंत्री जयन्ती मनाने के नाम पर करोड़ों रुपये पानी की तरह फूंक देती हैं। योजनाओं को पूरी करने के लिए धन की कमी की बात करती हैं। बजट मुहैय्या कराने में केन्द्र सरकार पर भेदभाव का आरोप भी लगाती हैं। क्या, मायावती और बसपा के रणनीतिकार बताएंगे कि इतनी रकम कहां से आई। जयन्ती समारोह पर कितना खर्च हुआ। क्या बसपा के पार्टी कोष में धन है कि वह अपने खर्च पर इतना बड़ा आयोजन कर सकती है। देश का कोई भी नागरिक इससे इत्तेफाक  नहीं रखेगा कि जयन्ती आयोजन में सरकारी धन का दुरुपयोग न हुआ है। हालांकि, उत्तरप्रदेश के लोकनिर्माण मन्त्री का यह कहना कि यह आयोजन और माला के लिए रकम कार्यकर्ताओं द्वारा चन्दा कर जुटाया गया है। गले के नीचे नहीं उतरता। क्या मन्त्री महोदय यह बताएंगे कि प्रदेश में जो प्रतिमाएं लगाई जा रही हैं उसके लिए पार्टी कार्यकर्ताओं ने चन्दा एकत्र कर दिया है। या सरकारी खजाने का ही इस्तेमाल किया गया है।

दूसरी तरफ, मुख्यमंत्री को अपनी मूर्तियां भी लगवाने का शौक है। सीएम साहिबा आप अच्छा काम करेंगी तो जनता आपकी मूर्ति खुद लगवाएगी। अपने कार्यों की समीक्षा जनता को करने दीजिए। दलित उत्थान और दलित पुरुषों को सम्मान दिलाने के नाम पर फिजूल खर्ची का समर्थन नहीं किया जा सकता। वैसे भी बसपा केवल दलित एजेण्डे के बल पर ही उत्तरप्रदेश में बहुमत की सरकार बनाने में सफल नहीं हुई है। पार्टी को राज्य में सभी जातियों का भरपूर समर्थन मिला है। जो जातियां भाजपा और कांग्रेस की कभी कट्टर समर्थक थीं उन्होंने भी बसपा को वोट देकर सत्ता की चाबी सौंपी थीं। शायद मायावती और उनके सिपाहसलार इस बात को भूल गए हैं। मुख्यमंत्री साहिबा याद रखिए काठ की हाण्डी बार-बार चूल्हे पर नहीं चढ़ती।

पांच बार देश को प्रधानमन्त्री देने वाले उत्तरप्रदेश का यह दुभाüग्य है कि राज्य के विकास के लिए किसी दल ने ईमानदारी से पहल नहीं किया। यहां पाटिüयां सत्ता हासिल करने और अपनों की जेबें भरने में ही लगी रहीं। आज भी किसी दल केपास प्रदेश के विकास के लिए न तो कोई विजन है और न ही नीति। लेकिन, यहां की जनता पता नहीं क्यों सबकुछ जानते हुए भी पिछड़ेपन का दंश झेलने को बाध्य है।

March 10, 2010

आरक्षण से ही महिलाओं के दुख दूर नहीं हो जाएंगे

जातिवाद की राजनीति करने वालों को मुंहकी  खानी ही थी

पिछड़ों, दलितों और मुस्लिम महिलाओं के लिए कोटे के अन्दर कोटे की पैरोकारी करने वाले कथित लंबरदारों  के विरोध के बावजूद महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का विधेयक राज्यसभा में पास होना वाकई ऐतिहासिक कदम है। लेकिन, इससे महिलाओं के सारे दुख दूर हो जाएंगे ऐसा कुछ होने वाला नहीं है। लेकिन एक उम्मीद तो जगती है। दूसरी तरफ, एक सार्थक विधेयक पर लेफ्ट, राइट और कांग्रेस का एक साथ आना लोकतन्त्र के लिए सुखद है। जो यह बताने के लिए काफी है कि दुनिया में भारतीय लोकतन्त्र की जड़ें कितनी गहरी हो चुकी हैं।

महिलाएं चाहे पिछड़े वर्ग की हों, दलित हों या मुस्लिम समुदाय  की हों अथवा अगड़ी  जातियों से सम्बंधित हों उनकी समस्याएं एक जैसी होती हैं। महिलाओं को आरक्षण के नाम पर बांटना निश्चित तौर पर गलत है। लेकिन, यह बात लालू, मुलायम और शरद यादव को समझ में आए तब न। इन्हें तो लोकतन्त्र में ही विश्वास नहीं है। संसद में जो मर्यादा इन लोगों ने दिखाया उससे देश का हर संभ्रान्त नागरिक दुखी है। लोकतन्त्र में विरोध करने का तरीका होता है। लेकिन, इस तरह का आचरण तनिक भी शोभनीय  नहीं है। ऐसे आचरण करने वाले दलों के नेताओं के विरुद्ध सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। इन दलों की मान्यता तक समाप्त कर दी जानी चाहिए। इसी से देश में जातिवाद की जड़ें खत्म होंगी।

दूसरी तरफ, मौजूदा स्वरूप में इस विधेयक का विरोध करने का ठोस कारण किसी पार्टी के पास नहीं है। जो दल विरोध कर रहे हैं उसके पीछे उनकी मंशा गलत है। दरअसल, यह दल आरक्षण के आड़ में अपनी रोटी सेंकना चाहते हैं। इन्हें डर है कि अबतक  जो लाभ इन्हें मिलता रहा है। महिलाओं को आरक्षण देने के बाद  नहीं मिलेगा। इनके कुनबे को मिलने वाली मलाई बंट जाएगी।

दरअसल, यादव तिकड़ी  कोटे के अन्दर कोटे की मांग यों ही नहीं कर रही है। इसके पीछे एक गहरी सोच है। जो मण्डल कमीशन की राजनीति से जुड़ी है। इनकी मंशा स्पष्ट तौर पर सामान्य जाति के लोगों को संसद और विधानसभाओं से बाहर करने की है। आरक्षण के अन्दर आरक्षण की व्यवस्था से असल में कम तो सामान्य वर्ग की सीटें ही होंगी। दूसरी तरफ सामान्य आरक्षण से किसी को कोई नुकसान नहीं होगा। हां, इससे यादव तिकड़ी  और अन्य को अपनों को टिकट देने का रास्ता थोड़ा कम हो जाएगा। यही इनके विरोध की वजह है। दूसरी तरफ, सामान्य महिला आरक्षण के विरोध के बहाने ही लालू-मुलायम को अपनी खोई जमीन फिर से हासिल करने का एक रास्ता नज़र आ रहा था। जिसमें वे कामयाब नहीं हो सके। मुलायम और लालू मुस्लिमों को रिझाने के लिए ही सारी कवायद कर रहे थे। वह जानते हैं कि अब भाजपा का हौव्वा खड़ा कर मुस्लिमों को अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर सकते। क्योंकि, मुस्लिम मतदाता इनकी नीयत को भांप चुका है। कांग्रेस की तरफ मुस्लिमों का झुकाव इन्हें रास नहीं आ रहा है।

ध्यान रहे जब दो तिहाई बहुमत से राज्य सभा में विधेयक  पास हो गया तो नजमा हेपतुल्ला कितनी खुश थीं। वह भी तो मुस्लिम ही हैं। उन्हें तो इससे तनिक भी ऐतराज नहीं है। दूसरी तरफ, आरक्षण में मुस्लिम महिलाओं के लिए किसी मुस्लिम बुद्धिजीवी  ने मांग नहीं की थी। तो क्या वजह है कि सर्वाधिक हितैषी मुलायम और लालू-शरद ही हैं। दरअसल, ये लोग अपनों के अलावा कभी सर्वसमाज  के बारे में सोच ही नहीं सकते। यह भूल जाते हैं कि कभी जाति की राजनीति को आधार बनाकर कभी भी सत्ता शीर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। उत्तर प्रदेश में मायावती ने जैसे ही तिलक तराजू की बात त्यागीं वैसे ही प्रचण्ड बहुमत से जीतीं। क्या कभी मायावती दलित की राजनीति करके पूर्ण बहुमत से सत्ता में आईं होतीं। यह बात जितनी जल्द लालू मुलायम शरद जैसे जातिवाद फैलाने वाले समझ जाएं उतना ही अच्छा है।

विधेयक पास होने के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि संसद या विधानसभाओं में वैसी महिलाएं चुनकर आएंगी जिन्हें पता हो कि उनका दायित्व क्या है? ऐसा न हो कि चुनाव तो जीत जाएं लेकिन उनका रिमोट किसी और के हाथ में हो। जैसा कि पंचायतों में हो रहा है। सोनिया, सुषमा स्वराज,  शीला, मायावती, बिन्दा करात सरीखे महिला नेताओं की देश को जरूरत है। फिलहाल, जो महिलाएं लोकसभा या राज्य सभा में है वे अधिकतर पुरुष नेताओं से ज्यादे  शिक्षित और पेशेवर हैं। ऐसी महिलाएं चुनकर आएं तो निश्चित तौर पर हमारा लोकतन्त्र सही अर्थों में सफल हो जाएगा। लेकिन इसकी उम्मीद कम है.





March 3, 2010

हमारी आस्था और ये ढोंगी बाबा

जिस्म फरोसी के विरुद्ध सख्त कानून की जरूरत  
लड़कियों को आजादी दायरा, नैतिकता और अनुशासन के साथ दी जानी चाहिए

अपने देश में आस्था या धर्म के नाम पर किसी को बेवकूफ बनाना आसान है। अच्छी और लच्छीदार बातों से लोगों का विश्वास जीत कर उन्हें चूना लगाना मुश्किल नहीं है। देश में धर्म के आड़ में सरेआम अवैध धंधे चल रहे हैं। असल में कुकुरमुत्ते की तरह देश में बढ़ते कथित धर्माचार्य, सन्त और बाबा सफेदपोसों और हुक्मरानों की काली करतूतों को धवल वस्त्र प्रदान कर रहे हैं। ये बाबा जनता और अपने भक्तों की दक्षिणा से खुद तो ऐश ओ आराम की जिन्दगी व्यतीत करते हीं है अपने चेलों के लिए विलासितापूर्ण पल उपलब्ध कराने का जरीया भी बनते हैं।

दिल्ली में गिरफ्तार सेक्स  रैकेट का सरगना शिवेन्द्र उर्फ राजीव रंजन द्विवेदी उर्फ ईच्छाधारी सन्त स्वामी भीमानन्द अकेला ही श्वेत या भगवा वस्त्रधारी बाबा नहीं है। इसके जैसे अभी तमाम दबे पड़े हैं। जिनको पुलिस जानती है लेकिन उन पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं कर सकती। क्योंकि पुलिस को भी डर है कि उन बाबाओं के चेले उनके डिपार्टमेंट और राजनीति में भी हैं। उसकी डायरी से २५ हजार करोर की लेनदेन का मामला भी प्रकाश में आया है।

दरअसल, ये कथित बाबा या सन्त उतने दोषी नहीं हैं जितने हम और आप हैं। जब भी कोई आदर्श की बातें करने लगता है तो हम भारतीय उसे महान मानने लगते हैं। लेकिन यह जानने की कोशिश नहीं करते कि यह आदर्शवादी कहां से आ गया। इसका अतीत क्या है? यह और क्या गुल खिला रहा है। इन सब बातों को जानने की हमारे पास फुर्सत ही कहां है? हमें तो बस जल्दी है। और यही जल्दी हमारी दुखती नस है। जिसे राजीव रंजन द्विवेदी जैसे आस्था के भेçड़ये निगलने में देर नहीं लगाते। जब इनकी पोल खुलती है तो उस समय हम हार गए जुआरी की तरह होते हैं जो अपनी हारी हुई कमाई को कसमकसाते और छटपटाते हुए केवल देखता भर है कुछ कर सकने की उसमें नैतिक बल और जोश नहीं होता।

सेक्स सरगना शिवमूर्ति के गिरफ्तारी के दौरान टीवी पर दिखाए जा रहे उन दृश्यों को जरा स्मरण करिए वह कैसे लोगों को आशीर्वाद दे रहा था और आशीर्वाद लेने वाले किस तरह से निहाल हो रहे थे। उसके शरण में जाने वाले कोई एकदम से निपट निरक्षर या गांव के भोलेभाले लोग नहीं हैं। दिल्ली जैसे मेट्रो पोलिटन सिटी में रहने वाले जागरूक लोग हैं। लेकिन, कोई यह जानना जरूरी नहीं समझा कि यह बाबा कहां से अवतरित हो गए।

शिवमूर्त द्विवेदी उर्फ इच्छामूर्ति दिल्ली में ही गार्ड की नौकरी करता था। वह नोएडा पुलिस के हत्थे भी चढ़ चुका है। वह दिनदहाड़े लूट की वारदात को अंजाम दे चुका है। जिस्म्फरोसी के आरोप में पहले भी जेल जा चुका है। फिर भी लोगों का वह बाबा बन गया। उसके कदमों में धन की बरसात होने लगी। वह मन्दिर और अस्पताल तक बनवा डाला।

दूसरी तरफ, उसके साथ गिरफ्तार लड़कियां भी हाईप्रोफाइल मां-बाप की हाईप्रोफाइल बेटियां हैं। जिनकी जेब खर्चे इतने अधिक हो चुके हैं कि उन्हें पूरा करने के लिए अपना शरीर बेचने में तनिक भी गुरेज नहीं है। छह में चार से लड़कियां एयर होस्टेस हैं जिनमें से एक एमबीए की छात्रा भी है। यह हमारे बदलते भारत और विकसित भारत की बदलती तस्वीर है जो स्त्री स्वतन्त्रता का हिमायती है। लड़कियों को आजादी मिलनी चाहिए, लेकिन दायरा, नैतिकता और अनुशासन का कड़ा पहरा भी होना चाहिए। यह देखा भी जाना चाहिए कि इस स्वतन्त्रता का बेजा इस्तेमाल तो नहीं हो रहा है। जो लड़कियां पकड़ी गईं हैं केवल वही दोषी नहीं हैं। उनके माता-पिता भी दोषी हैं। जिन्हें न तो अपने बच्चों को देने के लिए संस्कार है और न ही उनकी कार्य गुजारियों का समीक्षा करने के लिए समय। ऐसे में बच्चे तो ऐसे रैकेटों में फंसेंगे ही। क्योंकि, पकड़ी गई सभी लड़कियां अमीर घरों और बड़े कालेजों में पढ़ने वाली हैं। इस शिवेन्द्र उर्फ राजीव रंजन द्विवेदी के रैकेट में अभी पुलिस पर भरोसा करें तो कम से कम चार सौ से अधिक लड़कियां हैं। इसका नेटवर्क देश के कई बड़े शहरों में फैला हुआ है। जो अपने भक्तों के सुविधा के अनुसार सम्बंधित शहरों में ही लड़कियों को उपलब्ध कराता है।


जिस्म फरोसी के विरुद्ध सख्त और गैर जमानती कानून बनाना होगा. मौजूदा कानून बहुत लचीला. इस तरह के एक मामले में सेक्स रैकेट चलाने वाली सोनू पंजाबन छूट चुकी है. शिवेंद्र भी छूट जायेगा.



सवाल यह नहीं है कि राजीव रंजन कितना दोषी है। सवाल यह है कि हम और आप कितने दोषी हैं जो ऐसे लोगों को पनपने देने का मौका देते हैं। ऐसे लोगों पर सरकार भी क्या नियन्त्रण लगाएगी जब जनता खुद ही लूटने के लिए इनके पास जाती है।


March 1, 2010

आप सभी ब्लॉगर बंधुओं की होली रंग भरी हो
 

                                   शुभकामनाओं के साथ
                                    शैलेश कुमार विजय




छवि गढ़ने में नाकाम रहे पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम

कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में शुमार पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम आईएनएक्स मीडिया मामले में घूस लेने के दोषी हैं या नहीं यह तो न्यायालय...