April 13, 2009

तो क्या ये वाकई मुसलमानों का भला चाहते हैं!

एक बार फिर देश की सबसे बड़ी पंचायत के लिए चुनाव का समय आ गया है। फिर से राजनीतिक दल घिसे-पिटे मुद्दों और जनता को बरगलाने के लिए अपने घोषणापत्र के साथ इस महासमर में हाजिर हैं। गरीब जनता को कोई दो रुपये किलो चावल देने की बात कर रहा है तो कोई सांप्रदायिकता की बात उछाल कर अल्पसंख्यक वोट हथियाने की जोर आजमाइश करता नजर आ रहा है। लबोलुआब यह कि किसी भी दल या गठबंधन के घोषणापत्र में देश के लिए भावी `विजनं या आम आदमी के लिए कुछ भी `खासं नहीं है।

इस बार के चुनाव में राष्ट्रीय दल हों या क्षेत्रीय दल सभी एक समान नजर आ रहे हैं। राष्ट्रीय दलों के पास राष्ट्र के लिए न तो कोई दुरगामी उम्दा दृष्टिकोण ही है और न ही क्षेत्रीय दलों के पास राज्य विशेष या क्षेत्र विशेष के विकास के लिए अलग खाका ही है। कुछ है भी तो पुराने वायदे और नारे।

पिछले कई चुनावों की भांति इस बार भी अधिकांश पाटिüयों के नेता मुस्लिम समुदाय का वोट हासिल करने के लिए जीतोड़ प्रयास कर रहे हैं। इस मुहिम में कुछ दलों को छोड़ दिया जाए तो पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण के राज्यों में छोटे और बड़े दलों के क्षत्रप अपने को अल्पसंख्यक (मुस्लिम) हितैषी होने का दम भरते नजर आ रहे हैं। कोई उन्हें सांप्रदायिकता का भय दिखा रहा है तो कोई उन्हें विशेष सुविधाओं की बात कह रहा है।

दरअसल, पिछले कई दशक से देश में विभिन्न पार्टियों द्वारा अपने को मुस्लिम हितैषी होने या दिखाने का प्रचलन सा चल निकला है। सच्चाई तो यह है कि कोई भी दल वोट की राजनीति से ऊपर उठ कर उनके बारे में गंभीर ही नहीं है। केवल हौव्वा खड़ा करने और एक अनजाने सा भय उनके मन में डालने के अलावा यह कुछ नहीं करते।

वैसे यह दल भूल जाते हैं कि मुस्लिम मतदाता भी उनकी चाल को अच्छी तरह से समझते हैं। मुस्लिम समुदाय को पता है कि वह किस दल या विचारधारा से जुड़ेंगे तो उनका विकास होगा। एक शिक्षित और आम मुस्लिम मतदाता इन दलों के झांसे में आने वाला नहीं है।
मुस्लिम समुदाय को समझ है कि चुनाव के दौरान उनका केवल इस्तेमाल किया जाता है। जो नहीं है उसे पेश किया जाता है। मेरे आदरणीय मित्र प्रो. हामिद अंसारी ने एक बार कहा था कि मुसलमान अब समझदार और शिक्षित हैं। उन्हें पता है कि कौन से दल उनका वाकई में भला कर सकते हैं।

ताजा घटनाक्रम को ही लिया जाए तो वरुण गांधी पर रासुका लगाने के पीछे उत्तर प्रदेश सरकार की मुस्लिम मतदाताओं को छिटकने से रोकने की कोशिश ही है। इसी तरह किशनगंज के चुनावी सभा में रेलमंत्री लालू प्रसाद द्वारा वरुण पर बुलडोजर चलवाने की बात कहना भी मुस्लिम समुदाय को खुश करने वाली ही बात है।

हद तो तब हो जाती है जब लोजपा प्रमुख द्वारा अपनी पार्टी की घोषणापत्र में आरएसएस और विहिप पर प्रतिबंध लगाने की बात कह कर इस समुदाय को रिझाने की कोशिश करते हैं। इस बात को सभी लोग जानते हैं कि जिस दल का एक राज्य में भी सरकार नहीं है और न ही उतने विधायक या एमपी ही हैं जो किसी नीति को प्रभावित कर सकें। ऐसे लोग या ऐसे दल किसी का क्या भला कर सकते हैं। यह अपना केवल उल्लू सीधा कर सकते हैं और कुछ नहीं। यह कुछ ताजातरीन उदाहरण हैं। ऐसे बहुत से दल हैं जो केवल वोट की राजनीति ही करते हैं। अब ऐसे में मुस्लिम समुदाय को निर्णय करना है कि वह केवल वोट बैंक ही बने रहेंगे या....?

April 1, 2009

राष्ट्रीयता पर हावी होती क्षेत्रीयता

देश में क्षेत्रीय दलों की बढ़ती संख्या चिंता का कारण बनती जा रही है। अपने निहित स्वार्थ और अहम के चलते यह दल केंद्र को महेशा कमजोर ही करते नजर आते हैं। केंद्र में क्षेत्रीय दलों की भूमिका कुछ हद तक लोकतंत्र को मजबूती देने के लिए ठीक है। लेकिन व्यापक तौर पर देखा जाए तो क्षेत्रीय दल अपने निहित स्वार्थों और क्षुद्र राजनीतिक हितों के लिए केंद्र को कमजोर करने का ही काम करते हैं। इससे हमारा लोकतंत्र ही तो कमजोर होता है। इन क्षेत्रीय दलों के सामने जिस तरह राष्ट्रीय दल बेवश नजर आते हैं उससे तो लगता है कि देश में राष्ट्रीयता पर क्षेत्रीयता हावी होती जा रही है। राष्ट्रीय हित क्षेत्रीय हित पर बली चढ़ते जा रहे हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि क्षेत्रीय दलों की अपने-अपने राज्यों में कुछ राजनीतिक मजबुरियां हैं। लेकिन, राष्ट्रीय हित तो सबके लिए सवोüपरि होना चाहिए।

एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक है कि केंद्र में सभी राज्यों और क्षेत्रों का समान प्रतिनिधित्व हो ताकि, विकास के मामले में कोई भी क्षेत्र पिछड़ा न रह जाए और देश के हर नागरिक को विकास का समान अवसर हासिल हो सके। यह तभी हो सकता है जब क्षेत्रीय दलों की भूमिका केंद्र सरकार में सार्थक हो। निश्चित तौर पर क्षेत्रीय दल अपने प्रदेशों की समस्याओं को पूरजोर तरीके से उठा सकते हैं। यही नहीं केंद्र सरकार पर दबाव बना कर समस्याओं का समाधान भी करवा सकतीं हैं। पर ऐसा होता है नहीं है। देखा गया है कि समाधान कम, यश लेने में ज्यादे रुचि लेते छोटे दलों के नेता।

केंद्र में भाजपा के नेतृत्व में राजग गठबंधन की सरकार हो या कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए गठबंधन की सरकार। दोनों ही सरकारें क्षेत्रीय दलों की सहयोग से बनीं। दोनों गठबंधनों ने पांच साल सरकार चलाई। पूरे कार्यकाल में सरकारें क्षेत्रीय पार्टियों की रिमोट से ही चलती रहीं हैं। ये दल अपने समर्थन की पूरी कीमत वसूलते हैं। चाहे सरकार में शामिल हो कर मंत्री बनने का हो या अपने संबंधित प्रदेशों के लिए विशेष पैकेज प्राप्त करने की हो अथवा अपने दलों के प्रमुखों या नेताओं पर लगे आरोपी की जांच की धार को कुंद करने की हो। इन दलों ने केंद्र की नीति को हर वक्त प्रभावित और कमजोर करने का ही काम किया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि कोई भी राष्ट्रीय दल की नेतृत्व वाली सरकार स्वतंत्र और समग्र रूप से राष्ट्रीय हित को तरजीह नहीं दे सकी। चाहे बात विदेश या घरेलु निति का हो केंद्र सरकारों ने क्षेत्रीय दलों को संतुष्ट करने का प्रयास किया।

इन क्षेत्रीय दलों की कोई सिद्धांत भी नहीं है। कभी राजग के साथ तो कभी यूपीए के साथ। मतलब शुद्ध रूप से मौकापरस्ती। बिहार की लोजपा को ही लें तो राजग की सरकार में भी यह पार्टी शामिल थी तो यूपीए के साथ भी। हालांकि, राजग के कार्यकाल में गुजरातकांड के चलते (यह कहा जाए की मुस्लिम वोट के लिए तो गलत नहीं हो सकता) लोजपा ने अपना समर्थन वापस ले लिया था। उसी तरह नेशनल कांफ्रेंस भी अवसरवाद को ही बढ़ावा दिया है। राजग में उमर अब्दुल्ला मंत्री थे तो इस समय कांग्रेस की मदद से जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री। यह तो एक उदाहरण मात्र है। इस तरह से बहुत सारी पार्टिया हैं जो अपने हित साधने के लिए राष्ट्रीय दलों के साथ हो जाती हैं और मौका के बाद फिर दूसरे राष्ट्रीय गठबंधन के साथ हो जाती हैं।

अपने देश में क्षेत्रीय दलों की बाढ़ सी आ गई है। इनकी संख्या को देखा जाए तो उतनी तो लोक सभा में सीटें भी नहीं हैं। हर कोई पार्टी बना कर कुछ न कुछ ऐंठना चाहता है। ऐसे में क्षेत्रीय दलों की बाढ़ रोकने के लिए चुनाव आयोग को पहल करनी होगी। बेहतर तो होता संसद में इसके लिए कानून बनाया जाता है। देश में दो या तीन दलीय व्यवस्था ही भारत को विकसित देशों की कतार में ला सकती है। दलों की संख्या कम हो जाए तो हमारा देश स्वयं दलदली लोकतंत्र होने से बच जाएगा।
वैसे भी इन दलों से क्षेत्रीय विकास को बहुत बल मिला हो ऐसा कुछ दिखता नहीं। लालू प्रसाद और मुलायलम जी (एकाध प्रदेशों में इनकी पार्टी की उपस्थिती देखी गई है), अपनी पार्टी बना कर बिहार और उत्तर प्रदेश में अपनी सरकारें काफी समय तक चलाएं हैं लेकिन इन राज्यों में विकास तो कुछ भी नहीं दिखता। उल्टे बीमारू राज्य की श्रेणी में यह राज्य आते हैं। झारखंड मुçक्त मोर्चा, तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी, मनसे, जेडीएस, जेडीयू सहित देश भर की तमाम छोटे दल स्वस्थ लोकतंत्र को मजबूती देने का काम कर रहे हों ऐसा कुछ नहीं है। अलबत्ता कई बार संसदयी गरीमा को ठेस भी पहुंचाने में ये पीछे नहीं रहे हैं।

अब समय आ गया है कि देश के आम आदमी इन क्षेत्रीय दलों को बाहर का रास्ता दिखा कर राष्ट्रीयता को मजबूती दे। देश में दो या तीन दलों का होना ही सही होगा। अन्यथा वह समय दूर नहीं है जब केेवल क्षेत्रीयता ही होगी राष्ट्रीयता की कहीं भनक भी नहीं लगेगी। क्योंकि, जिस तरह से क्षेत्रीय और छोटे दलों के क्षत्रप संकीर्ण और स्वार्थपूर्ण राजनीति से प्रेरित हो कर राजनीति कर रहे हैं। उससे बहुत से सवाल और संदेह मन में पैदा होते हैं।

छवि गढ़ने में नाकाम रहे पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम

कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में शुमार पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम आईएनएक्स मीडिया मामले में घूस लेने के दोषी हैं या नहीं यह तो न्यायालय...