January 29, 2010

महानगरों में कम होते जिन्दगी के मायने

बात-बात पर जान लेने से पीछे नहीं हट रहे दिल्ली वाले

लगता है दिल्ली सरीखे महानगरों में रहने लोग मानवीय संवेदनाओं से दूर होते जा रहे हैं। क्योंकि, छोटी-छोटी बातों पर भी लोग एक दूसरे की जान लेने से नहीं चूक रहे हैं। लोगों का गुस्सा और तनाव तो आदिम युग की बर्बरता की कहानियों को ताजा करने लगा है। क्या महानगरों में जिन्दगी की कोई कीमत नहीं रह गई है? दिल्ली की यह खबर तो शायद कुछ इसी तरफ ही इशारा करती है।

पिछले दिन देश की राजधानी में एक युवक की हत्या इसलिए कर दी गई कि वह कुछ लोगों को अपने घर के सामने लघुशंका करने से मना कर रहा था। समाचारों के अनुसार मृत युवक के घर के सामने ही एक फैक्टरी है। वहां काम करने वाले मजदूर और अन्य कर्मचारी अक्सर उसके घर के सामने लघुशंका करते थे। घटना के दिन फैक्टरी मालिक अपने कुछ दोस्तों के साथ शराब पी रखा था। इसके बाद फैक्टरी मालिक अपने दोस्तों के साथ युवक के घर के सामने पेशाब करने लगा। जिस पर युवक ने मना किया तो उसने अपने दोस्तों और कर्मचारियों के साथ मिलकर उसे इतना पीटा कि वह युवक दम ही तोड़ दिया। हालांकि, पुलिस ने कार्रवाई करते हुए फैक्टरी मालिक को गिरफ्तार कर लिया और अन्य की तलाश कर रही है।

सवाल यह नहीं है कि पुलिस ने कार्रवाई कर आरोपी को गिरफ्तार कर लिया। सवाल इस बात का है कि दिल्ली हमारे देश की राजधानी है। ऐसे में यहां रहने वाले लोग इस तरह की हरकतें कर रहे हों तो इससे शर्मिन्दगी और अधिक क्या हो सकती है? यह सच है कि एक या दो घटनाओं से पूरे महानगर को कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता है यह भी सच है कि जो लोग इस तरह की घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं उनकी शैक्षणिक और सामाजिक स्तर दोयम दर्जे की है। लेकिन, इससे दिल्ली वालों के व्यवहार की पैरोकारी नहीं की जा सकती। क्योंकि, ऐसा देखने में आता है कि दिल्ली में पले बढ़े युवक सड़क पर खुद ही गलत दिशा में चलते हैं और आपकी गाड़ी में टक्कर भी मारेंगे और आपकी न केवल पिटाई करेंगे बल्कि जान भी लेने से नहीं चूकते हैं। ये युवक अपने आप को काफी शिक्षित और स्मार्ट मानते हैं।

दिल्ली सहित पूरे एनसीआर में छोटमोटी बातों पर लोग हत्या करने से भी पीछे नहीं हट रहे हैं। अभी कुछ दिन पहले की बात है एक युवक की हत्या महज बीस रुपये के लिए कर दी गई। इस तरह की लगभग दर्जन भर घटनाएं हैं जिसमें छोटी-छोटी बातों के लिए कत्ल कर देने की घटनाएं प्रकाश में आईं हैं।

दूसरी तरफ 31 दिसम्बर की रात जब पूरी दुनिया नए वर्ष के आगमन की खुशियां मना रही है तो दिल्ली में पान गुटका बेचकर अपनी जीविका चला रहे किशोर की दूसरे किशोर ने इस लिए हत्या कर दी कि उसके पास ठण्ड से बचने के लिए कुछ नहीं था। मृतक किशोर उसी दिन नया कंबल खरीद कर लाया था लेकिन उसे कंबल नसीब नहीं हो सका।

ये बातें मानवीय सोच की संकीर्ण होते दायरे को प्रतिबिंबित करने के लिए काफी हैं। गौर करने वाली बात यह है कि आज हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है। यदि गलत दिशा में जा रहा है तो इसके लिए हम आप क्या कर रहे हैं?

दिल्ली की उपरोक्त घटनाओं के लिए क्या वहीं जिम्मेदार  हैं जो इन घटनाओं को अंजाम दिए हैं? क्या हमारा समाज इसके लिए कम दोषी है?

January 15, 2010

तो क्या वाकई अमर मुलायम के कुनबाई मोह का विरोध कर रहे हैं?

उत्तरप्रदेश में सपा निश्चित तौर पर और कमजोर होगी
अमर भी नुकसान में रहेंगें
तो क्या अपने कुनबे के मोह में मुलायम सिंह यादव अमरसिंह के समाजवादी पार्टी के लिए किए गए योगदान को भूला देंगे? तो क्या वाकई अमर मुलायम के कुनबाई मोह का विरोध कर रहे हैं? या कुछ और खेल है।  जिस सपा और उसके मुखिया मुलायम के लिए अमर सिंह को भारतीय राजनीति का दलाल तक कह दिया गया। क्या उन्हें भुला पाना मुलायम के लिए आसान है। बेशक, मुलायम के भाई रामगोपाल यादव आज अमर की औकातं की बात कर रहे हों और उनकी हैसियत गांव के प्रधानी का चुनाव जीतने भर भी नहीं आंक रहे हों। लेकिन, इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि अमर सिंह ने ही सपा को औद्योगिक घरानों से जोड़कर आर्थिक रूप से समृद्ध किया। क्योंकि, सरकार चलाने के बाद भी सपा की माली हालत ठीक नहीं थी। अमर सिंह ने जिस भाई-भतीजावादी मुद्दे पर पार्टी से बगावती तेवर अपनाया है वह भारतीय राजनीति के लिए शुभ संकेत है। वैसे मुलायम और अमर को एक दूसरे की जरूरत है। अलग होने से मुलायम और अमर दोनों को नुकसान ही होगा।
हालांकि, अमर सिंह के लिए मुलायम ने पार्टी के कई संस्थापक सिपहसलारों को खोया है। लेकिन लोहिया के समाजवाद की बात करने वाले मुलायम जिस तरह से अपने कुनबे के मोह में फंसते जा रहे हैं। वह समाजवादी पार्टी के जनाधार को और कमजोर ही करेगा। केवल जातिवाद और मुस्लिमप्रस्त राजनीति करके सत्ता शीर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है। आज यादव और मुस्लिमों की पार्टी की छवि से बाहर निकल कर सपा समाज के लगभग सभी वर्गों में पैठ बना रही है तो इसके पीछे निश्चित तौर पर अमरसिंह का ही हाथ है। अमरसिंह ने सपा से न केवल राजपूतों को जोड़ा बल्कि अन्य सवर्ण जातियों को भी सपा में खींच लाने में कामयाबी हासिल की। जब भाजपा को ही उत्तरप्रदेश में सभी सवर्ण जातियां अपना दल मानती थीं वैसे माहौल में अमर सिंह ने क्षत्रियों और अन्य को सपा से जोड़कर भाजपा को कमजोर किया था। यही वजह है कि आज भाजपा उत्तरप्रदेश में चौथे स्थान पर पहुंच गई है।


दूसरी तरफ आज भी अमर सिंह की दिल्ली और पूरे राष्ट्रीय स्तर पर मुलायम और उनके प्रोफेसर भाई से ज्यादा स्वीकार्यता है। विदेशी नेताओं से भी अमर के अच्छे संबंध हैं। राष्ट्रीय राजनीति में मुलायम को असरदार बनाने में अमर सिंह का अहम योगदान रहा है। आज भी राष्ट्रीय राजनीति में अमर सिंह का लगभग सभी दलों के नेताओं से अच्छा संबंध है। अमर सिंह ने मुलायम और पार्टी को आगे बढ़ाने में बहुमूल्य योगदान दिया है। और रामगोपाल और अखिलेश की छवि महज यह है कि दोनों मुलायम के भाई और पुत्र हैं।

सपा से औद्योगिक घरानों और फिल्मी कलाकारों को जोड़ने का काम अमर सिंह ने ही किया था। जब मुलायम सिंह पिछली बार मुख्यमंत्री बने थे तो इसके पीछे भी अमर का ही अमर हाथ था। उस समय सरकार बनने के बाद उत्तरप्रदेश विकास परिषद का गठन कराकर मुलायम सरकार को आर्थिक मजबूती प्रदान किया था। जिसके बल पर ही मुलायम तमाम योजनाएं चला सके थे। हालांकि, फिल्मी कलाकारों से सपा को कोई खास लाभ तो नहीं मिला लेकिन इनके जुड़ने से पार्टी की स्वीकार्यता तो बढ़ी ही है।

दूसरी तरफ, अमर के आने से पहले जब मुलायम पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तो उस समय उन्हें यादव और मुसलमानों के अलावा दलितों का भी पर्याप्त समर्थन मिला था। मुलायम की पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और दलितों के नेता की छवि बनी थी। समाज के इन वर्गों में उनकी स्वीकार्यता भी थी। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन, मायावती के उत्थान के बाद तो दलितों ने न केवल मुलायम और सपा से कन्नी काट लिया बल्कि मुसलमान भी मुलायम का साथ छोड़ने लगे थे, कुछ जुड़े भी थे तो वह आजम और राजब्बर व दूसरे मुस्लिम नेताओं के चलते और कांग्रेस की कमजोर स्थिति और भाजपा को रोकने के लिए ही। लेकिन, अमर सिंह के सपा में अवतार के बाद से राजपूतों का झुकाव सपा की तरफ हुआ और उन्होंने दलितों की रिक्ति को कम करके सपा को मजबूत किया।

 अमर सिंह जिस मुद्दे को लेकर पार्टी से नाता तोड़ने वाले हैं वह मुद्दा स्वागत योग्य है। हालांकि पर्दे के पीछे और मुद्दे हैं जो दिखाई नहीं पड़ते। अगर अमर सिंह मुलायम के कुनबे के बढ़ते दबदबे का विरोध कर रहे हैं तो यह सही कदम है। कोई भी पार्टी एक व्यक्ति की पारिवारिक पार्टी नहीं हो सकती है। लेकिन, भारतीय राजनीति का यह दुर्भाग्य है कि भारतीय जनता पार्टी और वामदलों को छोड़कर कांग्रेस सहित तमाम छोटे-बड़े दल भाई भतीजावाद और कुनबाई मानसिकता से ग्रसित हैं। इन दलों में सभी महत्वपूर्ण पदों पर एक ही परिवार के सदस्य या उनके दूर तक के रिश्तेदार काबिज हैं। ऐसे में अमर सिंह का मुलायम के भाई, पुत्र और बहू के मोह का विरोध करना और पार्टी तक छोड़ने की बात कहना सुकून पहुंचाता है।


दूसरी तरफ मुलायम का दौर अब अस्ताचल की ओर जा रहा है। अब उनकी, पार्टी में अंतिम राय नहीं हो सकती। अपने कुनबे के सामने झुकना उनकी मजबूरी होगी। यदि रामगोपाल और अखिलेश अमर के खिलाफ कुछ बोल रहे हैं तो इसके पीछे कहीं न कहीं मुलायम का ही हाथ है। लेकिन रामगोपाल और अखिलेश यादव को यह याद रखना होगा कि अमर के जाते ही सपा और कमजोर होगी। अमर के चलते जो लोग सपा से जुड़े थे वे लोग भी बॉय बोलने में देर नहीं लगाएंगे और इसका सीधा फायदा भाजपा को मिलेगा और उत्तरप्रदेश की राजनीति में सपा फिर कभी मजबूत नहीं हो सकती।


January 11, 2010

क्यों जाते हैं भारतीय छात्र ऑस्ट्रेलिया

अभी नितिन गर्ग की चिता की आग ठंडी भी नहीं हुई थी कि ऑस्टे्रलिया में फिर एक भारतीय युवक जसप्रीत सिंह (29) को निशाना बनाया गया। इस बार ऑस्ट्रेलियाइयों ने तो सारी हदें पार करते हुए उस युवक को जिंदा जलाने का प्रयास किया। इस हमले में वह 20 फीसदी तक जल गया। इस कृत्य को ऑस्ट्रेलिया सरकार की विफलता माना जाए या वहां के निवासियों की दरिंदगी अथवा इसे ऑस्ट्रेलिया की सभ्यता और संस्कृति ही मान लिया जाए। यह एक बहस का मुद्दा है। वर्ष 2009 में भारतीय छात्रों पर हमले की करीब 100 घटनाएं हो चुकी हैं।



क्या इसके लिए भारत की केंद्र सरकार और भारतीय छात्र जिम्मेदार नहीं हैं? अव्वल तो भारतीय छात्रों को ऐसे नस्लीय देशों में जाना ही नहीं चाहिए। जहां के नागरिकों में इंसानियत से कोई सरोकार ही नहीं है। जो छात्र लाखों खर्च करके ऑस्ट्रेलिया में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं उससे कम पैसे में भारत में भी वही शिक्षा ग्रहण की जा सकती है। अपने देश में भी मेडिकल, आईटी और प्रबंधन की पढ़ाई विदेशी विश्वविद्यालयों और संस्थानों से तनिक भी कम नहीं होती। ऐसा भी नहीं है कि विदेशों से शिक्षा ग्रहण कर लौटे छात्रों को कंपनियां यहां हाथों-हाथ लेती हैं या उनमें अतिरिक्त पेशेवराना कौशल होता है। वैसे इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि विदेश में जाकर पढ़ाई करने के पीछे कुछ छात्र और उनके परिवार दिखावे की ग्रंथी से भी प्रेरित होते हैं। लेकिन, अधिकांश छात्र भारत की आईटी, प्रबंधन और मेडिकल संस्थानों में आरक्षण व्यवस्था की मार से ही विदेशों में जाने को विवश हैं और अपनी जान गवां रहे हैं। चूँकि यहां इन संस्थानों में कोटा निर्धारित है। जिससे बहुत से छात्र उच्च शिक्षा ग्रहण करने से वंचित हो जाते हैं। ऐसे में उन्हें विदेशों में उच्च शिक्षा के लिए जाना पड़ता है। यदि सरकार भारी संख्या में उच्च शिक्षण संस्थान देश के हर कोने में खेल देती तो यहां के छात्र विदेशों में अपमानित और हमले के शिकार नहीं होते। दूसरे अपने देश का पैसा विदेशों में नहीं जाता। दरअसल, केंद्र और राज्य सरकारों को अपनी सरकार चलाने के अलावा इस ओर सोचने का मौका ही नहीं मिलता।

भारत को आजादी मिलने से कुछ साल पहले ही जापान को बर्बाद कर दिया गया था लेकिन आज वही जापान भारत और विश्व के अन्य देशों से विकास और अपने नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने में दशकों आगे है। इसके पीछे उनकी ईमानदार और दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति ही है। ऑस्ट्रेलिया में पढ़ाई करना अपेक्षाकृत सस्ता है। लेकिन पढ़ाई के साथ सुरक्षा कारणों को भी ध्यान रखना होगा। ऑस्ट्रेलिया से बेहतर पढ़ाई न्यूजीलैंड, शिंगापुर, मॉरिशस सहित कई दूसरे पश्चिमी देशों में होती है। हालांकि, ऑस्ट्रेलिया में बीजा नियमों में ढील दी जाती है इसलिए भी भारतीय सहित अन्य दूसरे देशों के छात्र वहां जाकर पढ़ाई करना पसंद करते हैं। आंकड़ों के मुताबिक दूसरे देशों से आने वाले छात्र ऑस्ट्रेलिया की अर्थव्यवस्था में 13 अरब डॉलर का योगदान देते हैं। लगातार हो रहे हमलों से आने वाले समय में भारतीय छात्रों की ऑस्ट्रेलिया जाने की दर पचास फीसदी तक कम होगी। जिससे ऑस्ट्रेलिया को करीब 7 करोड़ डालर का नुकसान होगा।

विदेशों में भारतीयों की दुर्दशा के लिए भारत सरकार भी कम दोषी नहीं है। जब ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर छोटे-मोटे हमले हो रहे थे तो उस समय हमारी सरकार सोई हुई थी। यदि उस दौरान ही सरकार कड़ा रुख अपनाती तो शायद आज कई घरों का चिराग बूझने से बच गया होता। लेकिन यह तो भारत की सरकार है जब समस्या विकराल रूप धारण कर लेती है तब उसकी तंद्रा टूटती है। छात्रों पर हमले होते रहे हमारे देश के नेता जी लोग चुप रहे।


ऑस्ट्रेलिया में अधिकतर भारतीय छात्र पढ़ाई के साथ पार्ट टाइम जॉब करते हैं या टैक्सी चलाते हैं। छात्रों की अक्सर वहां टैçक्सयों को निशाना बनाया जाता रहा है। यही नहीं वे कंपनियों में वहां के स्थानीय युवकों की अपेक्षा कम पैसे में काम करने को तैयार हो जाते हैं। यही वजह है कि कंपनियां भारतीय छात्रों को ज्यादा पसंद करती हैं। दूसरे भारतीय छात्र अपने काम के प्रति ईमानदार होते हैं। जबकि, ऑस्ट्रेलियाई छात्रों में यह गुण कम पाया जाता है। ऐसे में ऑस्ट्रेलियाई युवक भारतीयों से जलते हैं। उनको लगता है कि भारतीय उनके अवसरों पर कब्ज कर रहे हैं।

क्या हमारी सरकार की जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह अपने नागरिकों को वेहतर सुविधाएं और छात्रों को उच्च शिक्षण संसथान उपलब्ध कराए। ताकि विदेशों में जान गवांने या जान जाने की नौबत ही न आए।

January 1, 2010

वर्ष 2010 आप सभी ब्लॉगर बंधुओं के लिए सुख,समृद्धि और प्रगति का वाहक बने। जो गुजर गया वह आपका भाग्य था और आने वाला कल आपका विश्वास है इसलिए वर्तमान को सुखद और शांतिमय बनाकर जीवन के पथ पर आप सभी अग्रसर हों....    
                                                                   हार्दिक  शुभकामनाओं सहित
                                                         

                                                                  शैलेश विजय

छवि गढ़ने में नाकाम रहे पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम

कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में शुमार पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम आईएनएक्स मीडिया मामले में घूस लेने के दोषी हैं या नहीं यह तो न्यायालय...