July 6, 2009

क्या समलैंगिकता मानसिक बीमारी नहीं है ?

समाज को नहीं अपनी सोंच बदलें समलैंगिकता के पैरोकार


समलैंगिक संबंधों पर दिल्ली हाईकोर्ट का निर्णय भले ही कुछ पश्चिमप्रस्त मीडिया संस्थानों और संगठनों के लिए ऐतिहासिक और प्रगतिवादी फैसला लग रहा हो लेकिन देश की बहुसंख्यक जनता इसको गैर जरूरी और अव्यवहारिक निर्णय मानती है। आप कुछ मुठी भर लोगों की खुशियों के लिए देश की संस्कृति, परंपरा और प्रकृति से छेड़छाड़ करने की खुली छूट तो नहीं दे सकते।



समलैंगिक संबंधों को अपराध करार देने वाली धारा 377 को बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन कुछ लोगों को भले ही लगता है लेकिन इस तरह के संबंधों को वैधानिक स्वरूप प्रदान करना भी तो बहुसंख्यक जनता की भावनाओं का मजाक उड़ाना है।

यदि धारा 377 से कुछ लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन होता है तो होता रहे। इसके लिए समाज को विघटित और शर्मिंदा करने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। क्षमा चाहूंगा। एक अपराधी अपराध करना अपना अधिकार समझता है, आतंकवादी आतंकवाद फैलाना अपना कर्त्तव्य समझते हैं, चोर चोरी करना अपना मौलिक अधिकार मानते हैं तो क्या इन्हें भी छूट दी जा सकती है! मेरा आशय समलैंगिकों को अपराधी या आतंकवादी अथवा गलत लोगों की श्रेणी में खड़ा करना नहीं है। वरन मैं मेरा यह आग्रह है कि कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिस पर सोच विचार कर और बहुसंख्यक लोगों की भावनाओं और संस्कृति को ध्यान में रखकर ही फैसला लिया जाना चाहिए।



रामदेव जी ने ठीक ही कहा है कि समलैंगिक लोग मानसिक रूप से बीमार हैं उन्हें अस्पताल भेजना होगा। बकौल रामदेव जी समाज की सोच बदलने की जगह ऐसे लोगों को योग और प्राणायाम के जरिए अपने को बदलना चाहिए। आप समाज के साथ चलिए।



सवाल यह नहीं है कि समलैंगिकता को मान्यता मिलनी चाहिए या नहीं। गौरतलब बात यह है कि आखिर हम भारत को क्या बनाना चाहते हैं? पहले यह तय करना होगा। कृपया, भारत को भारत ही रहने दें तो अच्छा होगा, देश पर पाश्चात्य संस्कृति को थोपने की जरूरत नहीं है। भारत की अपनी संस्कृति, अपनी मान्यता, अपनी पहचान, परंपरा और एक छवि है। ऐसे में आप पश्चिम की बुरी सभ्यताओं को क्यों ग्रहण करना चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि पश्चिम में केवल बुराइयां ही हैं अच्छाइयां भी हैं आप उन्हें ग्रहण करें। आप यह न भूलें कि भारत को विश्व धर्म गुरू के रूप में भी जाना जाता था।

दरअसल, कुछ संस्थाएं और कुछ लोग ऐसे हैं जो देश की संस्कृति और परंपराओं के विरुद्ध षडयंत्र करने में लगे हैं। वे चाहते हैं कि भारत की प्राचीन संस्कृति विनष्ट हो जाए और पाश्चात्य की बुरी सभ्यता यहां खुलेआम चलें। पश्चिम में तो बच्चों की एक बड़ी संख्या है जिनके असली पिता के बारे में उनकी माताओं को ही निश्चित तौर पर पता नहीं होता है। यहां भी कुछ लोग ऐसी ही संस्कृति विकसित करना चाहते हैं। जहां उन्हें कोई टोकने वाला न हो। लेकिन ऐसी आजादी, ऐसी संस्कृति को भारतीय लोग बर्दास्त नहीं करेंगे।

समलैंगिकता भारतीयों की सोच या संस्कृति से मेल नहीं खाती। भारत में कभी भी इस तरह के संबंधों को मान्यता नहीं मिली। जिस कामसूत्र और प्राचीन भिçत्त चित्रों को आधार बनाकर इसे जायज ठहराने की कोशिश की जा रही है। उसके निहितार्थ को ठीक ढंग से नहीं समझा गया है। कामसूत्र के रचनाकार कोई साधारण उपन्यास या निबंध लेखक नहीं थे उन्हें देश, काल और परिस्थितियों का अच्छी तरह से ज्ञान था। वे प्रकृति और संस्कृति विरुद्ध कार्य करने की इजाजत कैसे दे सकते थे। जिस संबंध का (जिसे कुछ लोग समलैंगिकता मान रहे हैं) कामसूत्र में वर्णन किया गया है उसको गंभीरतापूर्वक अध्ययन करने की आवश्यकता है। उस प्रसंग का वाकई में क्या अर्थ होना चाहिए? यह जानने की कोशिश होनी चाहिए। जिस संबंध का जिक्र है वह किसके साथ, कब, कहां और क्यों करना चाहिए यह जानना होगा। हमें प्राचीन ग्रंथों में वणिüत प्रसंगों का उदाहरण देने से पहले उस प्रसंग की सारगभिüता को भी ध्यान में रखना होगा।
समलैंगिक संबंधों पर दिल्ली हाईकोर्ट के फैसला का देश में हो रहे चौतरफा विरोध को नकारा नहीं जा सकता। लगभग सभी राजनीतिक दल और सभी धर्मों के धर्माचार्यों ने भारी विरोध किया है। जदयू के शरद यादव ने ठीक ही कहा है कि देश में और भी गंभीर मुद्दे हैं जिस पर बहस होनी चाहिए। ऐसे मुद्दों पर बहस कर समय और ऊर्जा बर्बाद करने की जरूरत नहीं है।

वैसे भी समलैंगिकता के पैरोकार देश के कुछ शहरों में ही हैं। जिनकी जनसँख्या पूरे देश का प्रतिनिधित्व नहीं करती। छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में ऐसे संबंधों के बारे में लोग सोचना भी पसंद नहीं करते। कुछ एक अपवाद हो सकते हैं।

समलैंगिक तो जानवर भी नहीं होते। हम मनुष्य होकर ऐसे संबंधों की पैरोकारी क्यों कर रहे हैं? इस पर भी जरा सोचें..............

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