December 7, 2009

केंद्र की नाकामियों और महंगाई पर क्यों मौन है मीडिया ?

भारतीय मीडिया का दोहरा चरित्र
     
एक बार प्याज महंगी हुई तो भाजपा की सरकार सत्ता से बाहर हो गई। आज ऐसा कोई भी खाद्यान्न या सब्जी नहीं है जिसे सस्ता कहा जा सके। लेकिन, कहीं भी उन दिनों की महंगी प्याज की तरह आज की महंगाई की चर्चा नहीं होती। मीडिया वाले भी कभी कभार महंगाई की खबर ब्रेक कर अपनी लोकतांत्रिक छवि का साक्ष्य पेश कर देते हैं। क्या आज की वही मीडिया है जब भाजपा सत्ता में थी तो महंगी प्याज पर हायतौबा मचा रही थी? या क्या इसे मान लेना चाहिए कि मौजूदा दौर की मीडिया संस्थानों में कांग्रेस नीत सरकार का विरोध करने अथवा किसी समस्या पर घेरने का मादा ही नहीं है। या उन दिनों भाजपा को सत्ता से बाहर करने के लिए गहरी साजिश थी। जो भी हो आज मीडिया की भूमिका साफ सुथरी नहीं मानी जाएगी।


अटल जी के कार्यकाल में प्याज महंगी हो गई थी तो लोगों ने महंगाई पर जुमले और गाने तक बना डाले थे। उन दिनों यूपी और बिहार में एक गाना बड़ा गाया जाता था। अब का खईब सलाद हो अटल चाचा, पियजिया अनार हो गईल...। आज न केवल प्याज महंगी है बल्कि तमाम भोज्य पदार्थ महंगे हो चुके हैं। आज कोई नहीं कहता कि प्याज गरीबों के भोजन का अहम हिस्सा है। 20 रुपया किला प्याज, 40 किलो चीनी, 90 रुपया किलो अरहर की दाल और अन्य आवश्यक चीजों के दाम तो इस कांग्रेस की सरकार में ही बेहिसाब बढ़ रहे हैं। सरकार के मंत्री और रणनीतिकार हाथ खड़े कर चुके हैं। एक रटा रटाया सा जवाब आ जाता है कि जमाखोरी से महंगाई बढ़ रही है। मीडिया भी इसे तूल देने से बच रही है। क्या अटल सरकार के कार्यकाल में प्याज की जमाखोरी नहीं हुई थी। उस दौरान तो एक नीति के तहत जमाखोरी कराई गई थी। अटल सरकार के विरुद्ध मीडिया में माहौल पैदा कराया गया था। क्योंकि सरकार मीडिया के आकाओं को तृप्त नहीं कर पा रही थी।

आज एक औसत आमदनी का आम आदमी किसी तरह अपनी जिंदगी इस महंगाई के दौर में ढो रहा है। उसे बयां करना आसान नहीं है। लोगों को अपने जीवन स्तर से समझौता करना पड़ रहा है। हर जरूरतों में कटौती कर किसी तरह काम चलाने की नीति अपना कर लोग गुजारा करने पर मजबूर हैं। लेकिन, इसकी मीडिया संस्थानों को इसकी भनक नहीं है।


 अटल सरकार की पैरोकारी करना अथवा बीजेपी की तरफदारी करना मेरा मकसद नहीं है। बीजेपी से मेरा दूर तक कुछ लेना देना नहीं है। और नही मीडिया को किसी पार्टी विशेष से जोड़ने का आशय है। लेकिन यह सच्चाई है कि भाजपा नेतृत्व वाली सरकारों की छोटी सी गलतियों को भी तिल का ताड़ बना कर पेश किया जाता है। मानों भाजपा की सरकारें देश की सबसे बड़ी शत्रु हैं। अभी दूर जाने की जरूरत नहीं है भाजपा का कर्नाटक संकट पर जिस तरह से इलेक्ट्रानिक मीडिया ने कवरेज किया उसे पत्रकारिता का उच्च मानदंड तो नहीं कहा जा सकता है। एक चैनल के संवाददाता (जो चैनल में राजनीतिक संपादक के पद पर हैं) जिनकी विशेषता है कि तीन वाक्य को दो शब्दों में प्रस्तुत करते हैं, ने भाजपा संकट को कांग्रेस की आंध्रप्रदेश की राजनीति से जोड़ते हुए कहा कि कांग्रेस ने संकट को आंध्र में ही सुलझा लिया लेकिन भाजपा का कर्नाटक संकट दिल्ली तक पहुंचने के बाद भी नहीं सुलझ पा रहा है। अब आप बताएं दोनों पार्टियाँ एक तरह से ही कार्य करने लगें तो क्या होगा। यह सर्वविदित है कि कांग्रेस में सोनिया और राहुल गांधी के निर्णय को बदलने की किसी में हिम्मत नहीं है। मतलब साफ है कि लोकतंत्र की दुहाई देने वाली कांग्रेस में ही आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। वहां सोनिया-राहुल के निर्णय को कोई चुनौती नहीं दे सकता यदि देता भी है तो उसे निश्चित तौर पर पार्टी से बाहर जाना होगा। वहीं भाजपा में कमोबेश अपनी बात रखने का सबको अधिकार है। जिसका कुछ लोग गलत इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में संवाददाता का नजरिया कहां तक स्वस्थ है। आप किसी भी राजनीतिक पार्टी को दूसरे दल के नजरिये से नहीं देख सकते।

अटल सरकार की कई महत्वपूर्ण और जनकल्याणकारी योजनाओं का मीडिया द्वारा नजरअंदाज किया गया। यही नहीं प्रदेशों में भाजपा की सरकारों द्वारा किए जा रहे तमाम लोक कल्याणकारी कार्यों को महत्व नहीं मिल रहा है। गुजरात को ही लें वहां विकास के ढेरों कार्य कराए जा रहे हैं। लेकिन, उसकी चर्चा नहीं होती है। चर्चा जिस बात की होती है वह मोदी की नकारात्मक छवि की।

दूसरी तरफ केंद्र सरकार के मंत्री ए राजा की स्पेक्ट्रम घोटाले में फंसे होने के बाद भी मीडिया द्वारा ज्यादा तूल नहीं दिया गया। केंद्र सरकार कितनी चालाकी से मधु कोड़ा का मामला उठा कर अपने मंत्री के स्कैंडल को फिलहाल दबाने में कामयाब हो गई तो इसका श्रेय कांग्रेस परस्त कुछ मीडिया संस्थानों को ही जाता है।

एक उदात्त लोकतंत्र के लिए अदालतों और मीडिया का स्वतंत्र होना संजीवनी जैसा है। दुर्भाग्य से देश में इस समय कुछ मीडिया संस्थान कांग्रेस की केंद्र सरकार की पिछलग्गू मालूम पड़ते हैं। मीडिया संस्थानों को आर्थिक हितों के लिए पत्रकारिता के मानदंडों से समझौता नहीं करना चाहिए तभी भारत का लोकतांत्रिक व्यवस्था और मजबूत हो सकेगा।




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