May 10, 2010

मां को एक ही दिन सम्मान क्यों?

हमारी संस्कृति में माता-पिता के आशीर्वाद से ही दिन की शुरुआत करने की सलाह दी गई है

रविवार को भारत सहित लगभग अधिकांश देशों में पाश्चात्य संस्कृति का मदर्स डे मनाया गया। बच्चों और बड़ों ने मॉम को गिफ्ट  आदि देकर उनके प्रति सम्मान और प्रेम का प्रदर्शन किया। इस बार छोटे शहरों और शहर से सटे गांवों में भी यह दिवस मनाया गया। इसे देखकर कुछ अच्छा और कुछ बुरा भी लगा। अच्छा इस मामले में कि इस भागमभाग और व्यस्ततम जिन्दगी में भी लोग एक दिन का कुछ पल अपनी मां या अपनों के लिए निकाल लेते हैं। दुख इस लिए हुआ कि अब हम भारतीय भी रिश्तों को समय के चक्र में समेटने लगे हैं और इसे अपनी जिन्दगी के अहम हिस्सों में शामिल करने में हमें तनिक भी अटपटा नहीं लगता। बल्कि गर्व होता है।

रविवार को प्रकाशित लगभग सभी समाचार पत्रों में मदर्स डे पर फीचर पन्ना प्रकाशित किया गया था। जिसमें एक तरफ अपने बच्चों के भविष्य के लिए माताओं के समर्पण के किस्से थे तो दूसरी तरफ नामी लोगों के विशिंग भरे थे। कुछ अखबारों में यह खबर भी प्रकाशित की गई थी कि कई बच्चों को यह पता ही नहीं था कि मदर्स डे क्या होता है। दिल्ली नोएडा सहित कई बड़े शहरों में इस अवसर पर कई कार्यक्रम भी आयोजित किए गए। जिसमें कई शहीदों की माताओं को सम्मानित  किया गया है। जो एक अच्छी पहल है। ऐसे आयोजक निश्चित तौर पर बधाई के पात्र हैं, उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

माता-पिता को सम्मान  दिया जाना चाहिए। बुजुर्गों को भी एहसास होना चाहिए कि उनका भी ध्यान रखने वाला कोई है। सभी के माता-पिता यह चाहते हैं कि वृद्धावस्था में उनका सहारा उनकी सन्तान बनें। हर माता-पिता हर क्षण अपने बच्चों की उन्नति की कामना करते हैं।

ऐसे में यह बात उल्लेखनीय है कि क्या माता-पिता के लिए वर्ष में सम्मान प्रदर्शित करने के लिए एक दिन ही काफी है। वे मां-बाप जो तमाम दिक्कतें झेलकर भी अपने बच्चों को आगे बढ़ते हुए देखना चाहते हैं। क्या उन्हें साल में एक दिन ही एहसास होना चाहिए कि उनका भी कोई अपना है जो उन्हें प्रेम करता है। मुझे लगता है कि यह गलत है। हो सकता है कि इसे कुछ लोग प्रतियोगिता भरी और भागमभाग की जिन्दगी में सही मानते हों, लेकिन मैं इसे कतई सही नहीं मानता।

भारतीय समाज और संस्कृति में रिश्तों को समय के डोर में बांधने की कभी परंपरा नहीं रही है, और नहीं प्रेम, सम्बंध और अपनत्व को कभी दिन विशेष और समय चक्र में समेटा ही गया है। लेकिन, इधर कुछ वर्षों से समाचार चैनलों में पाश्चात्य संस्कृति के परंपराओं को भारतीय समाज में ढालने की कोशिश के फलस्वरूप लोग रिश्तों को दिन और घंटों में बांधने लगे हैं। हालांकि, यह परंपरा अभी देश के कुछ मेट्रो टाइप के शहरों में ही ज्यादे है। लेकिन, देखादेखी छोटे शहरों में भी इस तरह के अवसर मनाए जाने लगे हैं।

भारतीय संस्कृति, समाज और परंपराएं तो अपनों को हर दिन ससम्मान देने और प्रेम प्रदर्शित करने की उदात्त अवधारणा पर आधारित है। हमारी संस्कृति तो दिन की शुरूआत ही माता-पिता की आशीर्वाद से करने के लिए प्रेरित करती है। श्रीरमाचरितमानस में गोस्वामीजी लिखते हैं- प्रात काल उठि रघुनाथा, मातु-पिता गुरू नावहीं माथां जिस देश में ऐसे प्रेरक प्रसंग हों वहां माता-पिता को सम्मान देने के लिए दिन विशेष की भला क्या जरूरत है। कुछ लोगों की यह बात सही हो सकती है। आज के प्रतियोगी समय में यह सम्भव नहीं है। हम भी सहमत हैं कि सम्भव नहीं है लेकिन क्या रिश्तों को समय चक्र में बांधा जा सकता है। प्रतिदिन माता-पिता के प्रति सम्मान की भावना रखी जा सकती है। जिसके वे हमें जन्म देकर हकदार हैं।

पश्चिम की सोच और सभ्यता  अलग है। वहां रिश्तों की कोई पहचान ही नहीं है। कुछ थोड़े से लोग हैं जो परिवार संस्था को मानते हैं। लेकिन, हमारे देश में परिवार वह नींव है जहां से हमें सबकुछ हासिल होता है। ऐसे में हम प्रेम, सम्मान आदि को समय के बंधन में नहीं बांध सकते। यदि ऐसा करते हैं तो यह महज एक दिखावा से ज्यादा कुछ नहीं है। माता-पिता के लिए मदर्स या फादर्स डे पर गिफ्ट नहीं प्रतिदिन प्रेम के दो शब्द ही काफी हैं। दुर्भाग्य  से यह दिख नहीं रहा है। केवल पश्चिम का नकल करने में हम लगे हैं और इसी को हम आधुनिक होने का मुगालता पाल लेते हैं।

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