January 29, 2009

दूर होती आम आदमी से शिक्षा

दूर होती आम आदमी से शिक्षा

आखिरकार दिल्ली सरकार ने पब्लिक स्कूलों को फीस बढ़ाने की अनुमति दे ही दी। पहले से ही फीस की भार से बेजार अभिभावक अब दोहरी मार झेलने को विवश हो जाएंगे। बढ़ी फीस भरने के अलावा उनके पास और कोई विकल्प भी नहीं बचा है। अभिभावकों के सामने सबसे बड़ी दिक्कत सितंबर 2008 से बढ़ी फीस देने को लेकर है। उच्च आमदनी वालों के लिए तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन आम आदमी के लिए यह बहुत बड़ी बात है सरकार की घोषणा के मुताबिक पब्लिक स्कूल अपने स्टैंडर्ड के अनुसार सौ रुपये से लेकर पाँच सौ रुपये तक वसूलेंगे। क्योंकि स्कूलों को छठे वेतन आयोग के अनुसार अपने शिक्षकों को एरियर का भुगतान करना है।

सबको शिक्षा उपलब्ध कराने की केंद्र सरकार की घोषणा के बावजूद दिन प्रति दिन महंगी हो रही शिक्षा आम आदमी की पहुंच से दूर होती जा रही है। एक आम आदमी अपने बच्चों को बड़े स्कूलों में शिक्षा दिलाने का सपना देखने की हिम्मत नहीं जुटा सकता। अव्वल तो उसकी माली हालत उतनी नहीं होगी कि वह फीस वहन कर सके। यदि वह फीस वहन करने की हिम्मत भी कर ले तो बड़े स्कूल उनके बच्चों को एडमीशन नहीं देंगे। दिल्ली में ऐसा ही एक वाकया हालही में प्रकाश में आया है। एक बच्ची को एक नामी स्कूल में इस लिए प्रवेश नहीं दिया गया, क्योंकि उसका पिता फोर्थ ग्रेड का कर्मचारी था। हालांकि, दिल्ली शिक्षा निदेशालय मामले की जांच कर रहा है। यह इकलौता मामला नहीं है ऐसे कई मामले हैं जो प्रकाश में नहीं आते। मजबूरन लोगों को अपने बच्चों को निम्न दर्जे के स्कूल में अथवा एमसीडी के स्कूलों में पढ़ाना पड़ता है।

यह हालात केवल दिल्ली का ही नहीं है। देश के छोटे-बड़े सभी कस्बों और शहरों का है। जहां अभिभावकों के सामने फीस एक यक्ष प्रश्न की तरह खड़ा है। लोग अपनी कमाई का एक भारी हिस्सा बच्चों की फीस और मकान का किराया देने में ही व्यय कर देते हैं। इन स्कूलों में केवल फीस ही नहीं ली जाती है। विभिन्न तरह के कार्यक्रम आयोजित कराने के लिए भी शुल्क लिए जाते हैं। इसके अलावा यहां प्रोजेक्ट वर्क, ड्रेस, पिकनिक आदि के लिए भी शुल्क लिए जाते हैं। बच्चों के प्राइवेट टूशन और किताब-कापियों पर भी भारी खर्च आता है। अभिभावक अपने बच्चों को कटौती करने के लिए मना भी नहीं कर सकते। इन हालातों में आम लोग अपने होनहार बच्चों को भी साधारण स्कूलों में भेज देते हैं। जहां उनकी प्रतिभा खुलकर सामने नहीं आती।

वैसे यह भी सही है कि बड़े स्कूलों में भले ही फीस आम आदमी की पहुंच से दूर हो, लेकिन वहां उचित शैक्षिक वातावरण मुहय्यया तो कराया ही जाता है।

ऐसे में सरकार को भी चाहिए कि वह अपने स्कूलों का वातावरण सुधारे ताकि आम आदमी का बच्चा भी बड़े स्कूलों सा वातावरण पा सके।

January 18, 2009

सीख लें गांधीगीरी

नवाबों के शहर को गांधीगीरी सिखाएंगे मुन्ना
फिल्मों में लटको झटको दिखाने के बाद अब लखनऊ की जनता को गांधीगीरी सिखाने के लिए मुन्ना भाई उर्फ संजय दत्त चुनाव लड़ने नवाबों के शहर आ ही गए। इसके साथ ही मीडिया में मचा हो हो हल्ला भी शांत हो गया।

अब तक जितने भी अभिनेता से नेता बने हैं `कुछं को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश संबंधित क्षेत्र की जनता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाए हैं। संजय दत्त भी उन `कुछं में हो सकते हैं यह कैसे मान लिया जाए। जब वे अपने घर में कोई मिशाल कायम नहीं कर पाए हैं।

लखनऊ में रोड शो के दौरान जब उनसे पत्रकारों ने यह पूछा कि यहां कि तीन सबसे बड़ी समस्याएं क्या हैं? तो जवाब में संजय ने कहा कि आप ही बताएं। इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि जनता की अपेक्षाएं कितनी पूर्ण होंगी, जब उनको शहर की समस्याओं की ही जानकारी नहीं है तो वह किस आधार पर चुनाव लड़ने लखनऊ आए हैं। सोचने वाली बात है। अब तक देखा गया है कि नेता बनने वाले अभिनेता क्षेत्र की जनता की समस्याएं दूर करने के बजाए फिल्मों और विज्ञापनों की शूटिंग कर धन बटोरने में ही लगे रहते हैं। उनकी चुनावी घोषणा मिट्टी में मिल जाती है।

वर्तमान लोक सभा में जितने भी अभिनेता चुनकर संसद पहुंचे हैं उनमें से किसी ने (एकाध को छोड़ दिया जाए तो) अपने क्षेत्र की जनता अथवा क्षेत्र के विकास के लिए कुछ नहीं किया है। ना ही उन्होंने संसद में संबंधित क्षेत्र की समस्याओं के लिए आवाज ही उठाया। संसद सत्र के दौरान प्रश्न पूछने में भी ये बहुत पीछे रहे हैं। न ही किसी ने अपनी जनता की समस्याओं को लेकर धरना-प्रदर्शन ही किया है। जब इस तरह का इतिहास रहा है इन अभिनेताओं का तो संजय दत्त अलग होंगे, कैसे मान लिया जाए। एक बात और क्या संजय दत्त लखनऊ में ही रह कर क्षेत्र की जनता की सेवा करेंगे अथवा मुंबई जाकर फिल्मों की शूटिंग में लग जाएंगे?
वैसे ये रूपांतरित नेता (अभिनेता से बने) यदि ईमानदारी से पर्दे के ही अपने पात्र को असल जिंदगी में उतार दें तो मुझे लगाता है कि क्षेत्र का कायाकल्प हो सकता है। लेकिन ये लोग ऐसा करते नहीं हैं क्योंकि ये लोग एक तो अभिनेता ऊपर से नेता जो बन जाते हैं।

खैर अटलगीरी सीख चुकी लखनऊ की जनता इतनी आसानी से गांधीगीरी सीख लेगी कहना जल्दबाजी है। संजय भाई फिल्मों में ही गांधीगीरी सिखाएं तो अच्छा रहेगा। रील और रीयल लाइफ अलग-अलग है। वैसे भी आप जिस पार्टी से चुनाव लड़ने चले हैं उसके राष्ट्रीय महासचिव अमर सिंह आतंकवादियों से लेकर बलात्कारियों तक की पैरवी कर चुके हैं।

January 10, 2009

मेरा पड़ोसी

उसके बीवी बच्चों ने धुन डाला।

मैं दिल्ली के जिस मोहल्ले की गली में रहता हूं, मेरे मकान के सामने दिल्ली पुलिस के एक हेडकांस्टेबल भी अपने परिवार के साथ रहते हैं। मैं जब इस मकान में रहने आया तो पहली नजर में उस हेडकांस्टेबल को देख कर मुझे लगा कि वह घर का नौकर है या मकान मरम्मत करने वाला कोई राजमिस्त्री। लेकिन बाद में पता चला कि वह तो घर का मालिक है।

यही नहीं मैं जिस घर में रहता हूं। वह उसी का था, जिसे उसने मेरे मकान मालिक को बेच दिया था। वह हेडकांस्टेबल सुबह चार बजे उठ जाता है और देर रात तक मकान में तोड़फोड़ या मरम्मत करता रहता है। उसके इस कार्य से और लोगों को कोई दिक्कत होती है कि नहीं मैं यह तो नहीं जानता लेकिन मुझे बहुत परेशानी होती है।

हालांकि, मैं केवल मन ही मन उसके प्रति गुस्सा रखता हूं। कुछ कहता नहीं हूं। इस लिए नहीं कि वह पुलिस वाला है, बल्कि इस लिए कि वह बहुत बदतमीज किस्म का इंसान है। उसके परिवार में फिलहाल कुल पांच प्राणी हैं। पति-पत्नी एक बेटा और तीन बेटियां। एक बेटी और है। जो उसके बच्चों में वह सबसे बड़ी है। लोगों का कहना है कि वह मोहल्ले के ही एक लड़के से प्रेम करती थी और अपने घर वालों के मर्जी के विरुद्ध उससे शादी कर ली थी। शुरू में तो घर वाले नाराज जरूर हुए लेकिन बाद में सब सामान्य हो गया और वह अब अपने मायके आती जाती है।

उस हेडकांस्टेबल को गली वाले पागल कहते हैं। उसके परिवार वाले भी उसे पागल ही मानते हैं। उसका इलाज भी चल रहा है। वह शराब का भी शौक रखता है। इन दिनों वह मेडिकल लीव पर है, और डियूटी नहीं जाता है। तनख्वाह मिलने वाले दिन उसकी पत्नी जा कर पैसा ले लेती है। कुछ पैसा उसे खर्च के लिए किसी तरह मिल जाता है। इन पैसों को वह शराब आदि में खर्च कर देता है। घर का वातावरण देखने से लगता है कि उसका घर वालों से सामंजस्य नहीं बैठता है। किसी से वह बात नहीं करता है।

पिछले साल के आखिरी महीने के एक दिन वह शाम के समय शराब पी कर आया और किसी बात पर अपनी द्वितीय क्रम की लड़की को चांटा मार दिया। उसने उसे कई बार चांटा मारा। शुरू में तो लड़की कुछ बोली नहीं लेकिन बाद में वह विरोध पर उतर आई। अपने जन्मदाता पिता को वह भी एक तमाचा जड़ दिया। इतने में उसकी पत्नी और उसका बेटा और छोटी वाली बेटी भी आ गई। इसके बाद तो शुरू हो गया रिश्तों के खून करने का दौर, और दिखने लगा तथाकथित शहरी होने का उदाहरण। उसके बेटे ने उसका गिरेबां पकड़ कर उसे पटक दिया।

उसकी पत्नी जो उसके लिए परमेश्वर होना चाहिए था अपनी दोनों बेटियों के साथ पिटना शुरू कर दिया और तब तक पिटती रहीं जब-तक की वह निढाल नहीं हो गया। वह मोहल्ले वालों से मदद की गुहार लगाता रहा, लेकिन कोई मदद को नहीं आया। बाद में उसके घर वालों ने अपने एक परिचित मेडिकल स्टोर वाले को बुला कर बेहोशी का इंजेक्शन लगवा दिया। हालांकि, वह दूसरे दिन सामान्य दिनों की तरह अपने काम पर लगा गया था। लेकिन आज के रिश्तों की आधुनिकता की झलक उसने दिखा दी। इन दिनों मेरी मां गांव से आईं हुईं हैं।

इस घटना पर उनका कहना था कि यहां के लोग कैसे हैं मदद के लिए बुलाने पर भी नहीं आते। मैं उन्हें कैसे बताता कि यह गांव नहीं शहर है! बाद में मैं भी उस हेडकांस्टेबल को पागल मानने लगा। मुझे लगता है कि शायद आप भी उसे पागल मानने लगें। क्योंकि उसने अपनी सारी चल-अचल संपत्ति अपनी पत्नी के नाम कर दी है। या यों कहें कि उसके घर वालों ने उससे जबरिया लिखवा ली है। क्या अब समाज की यही हकीकत होने जा रही है। यदि वह अपनी संपत्ति को अपने पास रखता तो उसकी कम से कम यह हालत नहीं होती। उसके घर वाले उसकी पिटाई नहीं करते। थोड़ी बहुत इज्ज्त करते और वह मालिक की तरह घर में रहता। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और अब वह बीवी बच्चों से मार खाने के बाद जलालत की जिंदगी गुजार रहा है। मुझे लगता है कि आदमी को अपने पांव में उसके तरह कुलहाड़ी नहीं मारनी चाहिए।

January 4, 2009

मैंने भी आज से लिखना शुरू कर दिया

आज हमने भी ब्लोग्ग की दुनिया में कदम रख दिया है। खट्टे मीठे बहुत से अनुभव हैं जिन्हें लिखा जा सकता है। मेरी कोशिश होगी की मैं पुरी ईमानदारी से अपनी बात लिखूं। मैं अपने ब्लोग्ग में किसी को हार्ट करने से बचूंगा। आगे ईश्वर की कृपा।


शैलेश कुमार तिवारी

छवि गढ़ने में नाकाम रहे पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम

कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में शुमार पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम आईएनएक्स मीडिया मामले में घूस लेने के दोषी हैं या नहीं यह तो न्यायालय...