September 21, 2009

पोखरण-दो पर संदेह कहीं कुंठा तो नहीं!

राष्ट्र की छवि धूमिल करने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए


आजकल किसी भी बात को मीडिया में उछालने का नया ट्रेंड चल निकला है। लोग किसी भी मामले को सरेआम करने में थोड़ा सा भी संकोच नहीं कर रहे हैं। भले ही वह मामला राष्ट्रीय सुरक्षा अथवा स्वाभिमान से ही क्यों न जुड़ा हो। इस मुहिम में अपने को अभिजात और बौद्धिक वर्ग से कहने वाले लोगों की तादाद कुछ ज्यादा ही है।



इन दिनों राष्ट्रीय सुरक्षा, गौरव और अभिमान से जुड़ा अत्यंत संवेदनशील मामला परमाणु परीक्षण मीडिया और कुछ वैज्ञानिकों के बीच बहस का मुद्दा बना हुआ है। जो आम देश वासियों के लिए तो स्वाभिमान का विषय है, लेकिन जिन वैज्ञानिकों पर सरकार ने लाखों रुपये खर्च किया उनके लिए यह झूठ और धोखे से ज्यादा कुछ नहीं है।



कुछ वैज्ञानिकों की मांग है कि इसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। मेरी मांग है कि जांच आयोग इसके लिए नहीं बैठाया जाना चाहिए कि 1998 का परमाणु परीक्षण सफल रहा या नहीं बल्कि इस मुद्दे को उछालने वालों की मंशा की जांच होनी चाहिए। इसके पीछे वे लोग क्या साबित करना चाहते हैं। कहीं अटल सरकार को कटघरे में खड़ा करने की साजिश तो नहीं है (हालांकि, इसकी संभावना कम ही दिखती है, क्योंकि प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने भी इस बहस को अनावश्यक बताया है।) अथवा भारतीय प्रतिभा को अतंराराष्ट्रीय समुदाय में नीचा दिखाने की गहरी और सोची-समझी चाल या फिर कुंठा!



1998 में जब अटल जी की सरकार ने तमाम अंतरराष्ट्रीय दबावों को दरकिनार कर पोखरण में परमाणु परीक्षण कराया था उस समय पूरे देश को इस पर गर्व हुआ था कि हमारे वैज्ञानिक भी कम प्रतिभावान नहीं हैं। हालांकि, उस समय भी देश-विदेश के कुछ लोगों को तकलीफ हुई थी कि भारत कैसे परमाणु संपन्नता में एक और कदम आगे बढ़ा लिया।



1998 का परमाणु परीक्षण अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक मानकों पर खरा उतरा या नहीं इसे तो वैज्ञानिक समुदाय ही बता सकता है। साधारण लोगों को इस बारे में कम जानकारी है। हालांकि, परमाणु ऊर्जा आयोग और वैज्ञानिकों ने इसे पूरी तरह सफल बताया है। मौजूदा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन ने एक टीवी चैनल के साथ साक्षात्कार में इसे अनावश्यक बहस बताते हुए परीक्षण को सफल करार दिया है। यहीं नहीं, पूर्व राष्ट्रपति और मिसाइलमैन एपीजे कलाम ने भी परमाणु परीक्षण को पूरी तरह से सफल बताया है। ऐसे में डीआरडीओ के पूर्व अधिकारी के.संथानम की बातों को ज्यादा महत्व देने की कोई वजह नहीं है।



सवाल यह भी उठता है कि परीक्षण के एक दशक बाद इसकी कामयाबी पर संदेह व्यक्त करना किस बात का संकेत है। के.संथानम अबतक कहां थे? उन्हें लगता है कि पोखरण-2 देश की सामरिक जरूरतों को पूरा नहीं कर सकता तो उन्हें पहले ही अपना मत प्रकट करना चाहिए था। अब जबकि, लगभग विश्व समुदाय भी पोखरण-2 दो को मान्यता दे चुका है। ऐसे में अपने ही देश में परीक्षण पर संदेह व्यक्त करना शर्मनाक है। संथानम मीडिया के जरिए कहीं हाईलाइट होने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं। क्योंकि, इस प्रकरण से पहले तक तो उनका नाम भी बहुत कम लोग ही जानते थे।



कुछ मामले और मुद्दे ऐसे हैं जिन पर बहस होनी ही नहीं चाहिए। कल को कोई कहने लगे कि भारत ने जितनी भी मिसाइलों का परीक्षण किया है उनकी क्षमता कम है तो क्या इसे मान लिया जाएगा?  ऐसे में तो हमारी सुरक्षा ही कमजोर होगी। परमाणु परीक्षण और सुरक्षा से संबंधित गोपनीयताओं पर तो बिल्कुल ही बहस की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। क्योंकि, इससे राष्ट्र की छवि तो प्रभावित होती ही है शत्रु देशों को मुगालता भी होने लगती है। पोखरण-2 की कामयाबी पर संदेह व्यक्त करना सीधे-सीधे वैज्ञानिकों को हतोत्साहित करने की कोशिश है। इससे वैज्ञानिकों के मनोबल पर विपरीत असर पड़ सकता है। हालांकि, हमारे वैज्ञानिक चुनौतियों से निपटने में पूरी तरह से सक्षम हैं। उन पर असर नहीं होने वाला है।



लोकतंत्र में सभी को अपनी बात रखने की आजादी है। लेकिन, अपने देश में इस आजादी का कुछ लोग बेजा इस्तेमाल करते हैं। वैसे भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से देश की प्रतिष्ठा धूमिल होती है तो इस पर सरकार को भी कड़े कदम उठाने चाहिए। मीडिया को भी किसी भी मुद्दे को उछालने से पहले राष्ट्रीयता को प्राथमिकता देनी चाहिए। ग्लोबल मीडिया बनने की चाहत से पहले आप भारतीय मीडिया कहलाना पसंद करें। अमेरिका और ब्रिटेन की मीडिया संसथान भी तो राष्ट्रीय हितों से समझौता नहीं करते।






2 comments:

  1. बढिया विश्‍लेषण .. सही खबर जनता तक न पहुचाने के लिए मीडिया भी दोषी है !!

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  2. आज देश की राजनीति इतनी छिछली हो चुकी है कि...इन्हें खुद ही पता नहीं चल रहा कि ..इस संवेदनशील मुद्दे पर क्या कहना चाहिये....यही तो देश का सबसे बडा दुर्भाग्य है.....

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आपने धैर्य के साथ मेरा लेख पढ़ा, इसके लिए आपका आभार। धन्यवाद।

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