September 16, 2009

आदतों में शुमार हो चुकी है सुस्त कार्य संस्कृति

कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी धीमी, शाख पर लग रहा बट्टा


लगता है सुस्त कार्य संस्कृति हम भारतवासियों के संस्कारों में रच बस गई है। कोई भी कार्य समय पर पूरा न करने की मानों हमारी आदत सी बन गई है। कुछेक लोग और संस्थाओं को छोड़ दिया जाए तो अधिकांशतया विलंब की संस्कृति हावी दिखती है। अगर बात सरकारी योजनाओं की हो तो अधिकारी और कर्मचारी जानबूझकर विलंब करने और उसमें अनावश्यक अड़ंगा लगाने की अपनी आदतों से बाज नहीं आते हैं। पता नहीं क्यों लोगों में टालू आदतें गहराई तक जड़ जमा चुकी हैं। बात हम राष्ट्रमंडल खेलों की कर रहे हैं। जिसके आयोजन में महज 381 दिन ही शेष रह गए हैं। तैयारी अभी भी तय लक्ष्य से काफी पीछे है।


राष्ट्रीय गौरव और अभिमान से जुड़े मामलों में भी हम कितना लापरवाह और उदासीन हैं। इसका ताजा उदाहरण कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी है। विभिन्न खेलों के आयोजन की तैयारियों पर नजर डाली जाए तो आज की तारीख में हमारा देश सफल आयोजन में सक्षम नहीं है। यह शर्मनाक तब और हो जाता है जब कोई विदेशी तैयारियों की धीमी चाल पर चिंता जाहिर करते हुए प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप करने का आग्रह करता है। राष्ट्रमंडल खेल महासंघ के अध्यक्ष माइकल फनेल भारत में राष्ट्रमंडल आयोजन समिति के प्रमुख सुरेश कलमाड़ी को चिट्ठी लिखकर यह कहने को बाध्य होते हैं कि अब सिर्फ आपके प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप से ही खेलों की पूरी तैयारी संभव है।



फनेल की चिट्ठी को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। उनकी चिंताओं में हमारी टालू संस्कृति और किसी भी मामले को लंबा खींचने की आदतों का अक्स दिखता है। इससे तो हमारी शाख पर ही बट्टा लगने का खतरा पैदा हो गया है। यह विडंबना ही है कि फनेल की चिट्ठी के बाद आयोजन से जुड़े लोगों को यह बात समझ में आई कि खेलों से जुड़े प्रोजेक्ट काफी पीछे हैं। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी कहना पड़ा कि तैयारी को लेकर नर्वस जरूर हूं लेकिन काम समय पर पूरा होंगे। चिट्ठी प्रकरण से पहले वह भी दावा कर रहीं थीं कि तैयारी पूरी तरह से नियंत्रण में है।


आयोजन से जुड़ा ( संभवतः) ऐसा कोई भी प्रोजेक्ट नहीं है जिसको पचास फीसदी पूरा कर लिए जाने का दावा किया जा सके। हर प्रोजेक्ट अपने निर्धारित लक्ष्य से पीछे चल रहा है। चाहे वह खिलारियों से जुड़ा प्रोजेक्ट हो या खेलों के दौरान आने वाले विदेशी पर्यटकों को राजधानी की उम्दा छवि पेश करने से जुड़ा प्रोजेक्ट। सब पर हमारी क्षुब्ध कर देने वाली विलंब की संस्कृति हावी है। न तो अभी स्टेडियम ही ठीक हो पाएं हैं और नहीं पर्यटकों को ठहराने के लिए गेस्ट हाऊस ही तैयार हो पाएं हैं।



दूसरी तरफ, अभी जिन खेलों का आयोजन होना है उनमें भाग लेने वाले खिलारियों को भी तैयारी करने के लिए सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराया गया है। जो संसाधन उनके पास हैं भी वह स्तरीय नहीं कहे जा सकते। ऐसे में हम खिलाçड़यों से पदक की कैसे उम्मीद कर सकते हैं? यदि आज चीन खेलों में उम्दा प्रदर्शन कर रहा है तो उसके   को मिलने वाली सुविधाएं भी उम्दा हैं। भारत के पास संसाधनों की कमी नहीं है लेकिन भ्रष्टाचार सही इस्तेमाल नहीं करने देता।




केंद्र और दिल्ली में कांग्रेस की सरकार है। खासकर दोनों जगह कांग्रेसी अपने कार्यों के बल पर कमबैकं करने का दावा कर रहे हैं। राष्ट्रमंडल खेलों तक दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित तो राजधानी को पेरिस बनाने की घोषणा कर चुकी हैं। इसी तरह से चलता रहा तो पेरिस तो दूर हम दिल्ली को देश का भी बेहतरीन शहर नहीं बना पाएंगे। दोनों सरकारों को अपनी जिम्मेदारियों और कमियों को खुले मन से स्वीकार करना होगा।





दरअसल, राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में केंद्र और दिल्ली सरकार दोनों की सहभागिता है। दोनों जगह अधिकारियों की समय पर समन्वय न बन पाना आयोजन की तैयारियों को धीमा कर दिया। यदि दोनों सरकारों के अधिकारी इसे राष्ट्रीय स्वाभिमान और अपनी जिम्मेदारी से जोड़कर लेते तो शायद इतना विलंब नहीं होता और एक विदेशी को चिंता जाहिर करने का मौका नहीं मिलता।




राष्ट्रमंडल खेलों के सफल आयोजन से विश्व में हमारे देश की एक अलग छवि बनेगी। आज जो विदेशी भारत को सांप-सपेरों का देश मानते हैं उन्हें भारत की उदात्त छवि देखने को मिलेगी। वह जान सकेंगे कि भारत कितनी तेजी से विकास कर रहा है। यह तभी संभव है जब एक वर्ष में खेलों से जुड़े सभी प्रोजेक्ट को तीव्र गति से पूरा कर लिया जाए। इनमें कई ऐसे प्रोजेक्ट हैं जो आधुनिक भारतवर्ष की छवि पेश करेंगे।

2 comments:

  1. सहमत हूँ आपकी भावनाओं से.

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  2. bahut badiya shailesh bhai.......

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आपने धैर्य के साथ मेरा लेख पढ़ा, इसके लिए आपका आभार। धन्यवाद।

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