February 12, 2010

गृहमन्त्री जी कश्मीरी पण्डितों को वापसी का प्रस्ताव कब देंगे?


अपने ही देश में शरणार्थी बने हैं कश्मीरी पण्डित
कांग्रेस का समर्थन परंपरागत तुष्टिकरण का ही नीति है

जम्मू-कश्मीर के मुख्यमन्त्री उमर अब्दुल्ला के पाक अधिकृत कश्मीर गए युवाओं के वापस आने और उनके पुनर्वास और समर्पण के प्रस्ताव को केन्द्र सरकार की सहमति मिलना कांग्रेस की परंपरागत तुष्टिकरण नीतियों का ही परिचायक है। अचानक आए इस वक्तव्य से केन्द्र और राज्य सरकार की नीयत पर प्रश्नचिंह उठना स्वाभाविक है। दूसरी तरफ केन्द्र सरकार के एक मन्त्री तक ने भी इस प्रस्ताव का विरोध किया है। हालांकि, मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने इस प्रस्ताव का तीव्र विरोध कर विपक्षी दल के धर्म का निर्वाह कर दिया है। अब देखना दिलचस्प होगा कि पार्टी किस दमदार तरीके से केन्द्र और राज्य सरकार के इस प्रस्ताव का विरोध करती है। जो लोग पाकिस्तान या पीओके गए हैं उनकी पूरी छानबीन कर यह जानने की कभी कोशिश की गई है कि वे लोग वहां क्या कर रहे हैं? भारत विरोधी गतिविधियों को अंजाम देने वालों को पुनर्वास नहीं उन्हें सजा-ए-मौत मिलनी चाहिए। ताकि, दूसरे कथित तौर पर भटके युवाओं को सीख मिले। क्या केन्द्र और राज्य सरकार देशवासियों को यह निश्चित आश्वासन दे पाएंगी कि वे युवक फिर से नहीं भटकेंगे? यदि फिर से भटकते हैं या उनके साथ दूसरे तरीके से घुसपैठ होती है तो इसकी जिम्मेदारी और जवाबदेही किसकी होगी?

दूसरी तरफ, राज्य के विकास का सब्जबाग दिखाने वाले मुख्यमन्त्री उमर ने कश्मीरी पण्डितों के राज्य में वापसी के लिए अभी तक कोई प्रस्ताव नहीं दिया और नहीं पण्डितों को यह भरोसा ही दिलाया कि यदि वे वापस लौटते हैं तो राज्य में उनको पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था उपलब्ध कराई जाएगी। वहीं केन्द्र की कांग्रेस नीत सरकार ही अपनी दूसरी पारी में इस सम्बंध में कुछ करती नहीं दिख रही है। ऐसे में देशद्रोह कर पाकिस्तान गए और वहां से भारत विरोधी गतिविधियों में शामिल होने वाले लोगों और युवाओं के पुनर्वास और समर्पण का पुरजोर समर्थन करना केन्द्र की मंशा तुष्टिकरण से ज्यादा कुछ नहीं लगती। लाखों कश्मीरी पण्डित अपनी जमीन जायदाद और संपत्ति छोड़कर आज देश के कई शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं। उनकी सुधी लेने की न तो फुरसत कांग्रेस की केन्द्र सरकार को है और नही कांग्रेस की समर्थन से चल रही जम्मू-कश्मीर सरकार को है। क्या कश्मीरी पण्डितों को अपने पूर्वजों के राज्य में रहने का सपना पूरा नहीं होना चाहिए। अपनी जड़ों से, अपनी मिट्टी से उखड़ने का दर्द क्या होता है इसे जानना हो तो कश्मीरी पण्डितों के शरणार्थी शिविरों में जाकर देखा जा सकता है।

क्या देश के प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री और कश्मीर के मुख्यमन्त्री उमर अब्दुल्ला ने कभी उन पण्डितों से मिलकर उनके दुखदर्द को जानने की कोशिश की? सरकारों ने उनकी समस्याओं को जानने के लिए कभी पहल ही नहीं कीं। क्या इसकी वजह यही है कि वे लोग हिन्दू हैं? जो अपने ही देश में शरणार्थी बने हैं। आज भी वे अपने राज्य में वापस लौटने का इन्तजार कर रहे हैं। कई तो इसी इन्तजार में कालकवलित हो गए। लेकिन, केन्द्र सरकार को उनकी खोज खबर लेने की कोई जरूरत ही महसूस नहीं होती।


यह कितना अफसोसनाक है कि जो लोग आतंकवादियों से मिलकर देश को तबाह करने की कोशिश में लगे हैं। हजारों निर्दोषों का खून बहा चुके हैं, उनकी पुनर्वास की बात की जा रही है। उन्हें भटका हुआ युवक बताया जा रहा है। राज्य का मुख्यमन्त्री उन्हें आम माफी दिलाने की वकालत करता है। लेकिन, मुख्यमन्त्री को बेगुनाह लोगों की कोई चिन्ता नहीं है जो शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं। उनकी गलती बस इतना ही है कि वे कश्मीर के हिन्दू हैं जिनका इतिहास गौरवशाली रहा है। जो वास्तव में वहां के अर्थात  जम्मू-कश्मीर के मूल बाशिन्दे हैं।


सबसे ज्यादा दुख तो इस बात का है कि कोई भी दल इन कश्मीरी पण्डितों की बात नहीं करता। कोई भी दल अपने घोषणापत्र में इनके पुनर्वास की बात नहीं उठाता। गृहमन्त्री पी. चिदंबरम को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए। जिस जल्दबाजी में उन्होंने उमर अब्दुल्ला का समर्थन किया है, उसी के साथ गृहमन्त्री को मुख्यमन्त्री से पूछना चाहिए था कि इन पण्डितों के पुनर्वास के लिए सरकार क्या कर रही है। राज्य सरकार इनकी वापसी के लिए अबतक कौन-कौन से कदम उठाई है? यदि नहीं उठाई है तो क्यों? क्या यह हिम्मत गृहमन्त्री पी. चिदंबरम दिखा पाएंगे? इस सवाल का जवाब कश्मीरी पण्डितों के साथ सभी देशवासियों को है।

1 comment:

  1. अभी कुछ देर पहले खबरों में चर्चा चल रही थी जिसमें कश्मीर के मुख्यमन्त्री उमर अबदुल्ला के उस बयान का जिक्र था जिसमें दिग्भ्रमित कश्मीरी युवाओं के पुनर्वास और वापसी का प्रस्ताव उन्होंने दिया था. कितना अच्छा लगता है सुनने में. लाखों कश्मीरी पंडित अपने ही देश में कश्मीरी आतंकवादियों का शिकार होकर विस्थापित हो देश के विभिन्न भागों में ठोकर खा रहे हैं. उनके पुनर्वास के लिये न तो कश्मीरी सरकार के पास कोई योजना है और न ही इस मुद्दे पर कोई धर्मनिरपेक्ष नेता बात करना चाहता है. लेकिन दिग्भ्रमित कश्मीरी युवाओं के लिये उनके पास पर्याप्त समय है. जब यही सब करना है तो फिर क्या जरूरत है कश्मीर में सेना के जवानों की बलि चढ़ाने की. क्या आवश्यकता है सीमा पर सेना तैनात करने की और भी तमाम तरह की नौटंकी करने की. बंग्लादेशियों को भारत का नागरिक बना ही लिया गया है, जो आतंकवादी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं. जब दुर्दान्त आतंकवादियों के बारे में ऐसी सोच है और जब उन्हें माफ करने की तैयारी चल रही हो तो कम से कम उन सभी कैदियों को रिहा कर देना चाहिये जो भारत की जेलों में सड़ रहे हैं और उन तमाम ट्रायल्स को बन्द करना चाहिये जो हत्या इत्यादि तक के अपराधों के मामले में चल रहे हैं. और भी बेहतर हो यदि लादेन को भारत के अगले प्रमुख के रूप में प्रोजेक्ट किया जाये.

    ReplyDelete

आपने धैर्य के साथ मेरा लेख पढ़ा, इसके लिए आपका आभार। धन्यवाद।

छवि गढ़ने में नाकाम रहे पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम

कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में शुमार पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम आईएनएक्स मीडिया मामले में घूस लेने के दोषी हैं या नहीं यह तो न्यायालय...